दृष्टिपात, गुरुगरिमा पर


         गुरू अथवा आचार्य का भारतीय सस्कृतियों ही नहीं, विश्व की अन्य  संस्कृतियों व समाजों  में विशिष्ट व अग्रणी स्थान रहा है l  बिना  ज्ञान के व्यक्ति को संभव व अशिष्ट  माना  जाता है l  चूँकि व्यक्ति से ही समाज व राष्ट्र का निर्माण होता हैं l अत: व्यक्ति में ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञान व दिशा प्रदाता का होना इसी कारण अपरिहार्य है। इसी अपरिहार्यता ने गुरू, आचार्य अथवा उस्ताद वर्ग को जन्म दिया। भारतीय-वैदिक संस्कृति पुरातनतम एवं श्रेष्ठ है, अत: गुरू होने के पात्रों के उद्धरण वैदिक ग्रन्थों, वेदांगो से देना ही प्रांसगिक होगा l 


सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में दिव्य दयानन्द सरस्वती मनुस्मृति के इस लोक का उल्लेख करते है:-


                                            प्रशासितारं सर्वेषामणीया समणोरति।
                                            रूकमाभं स्वप्नधीगम्यं विद्यातं पुरूषं परम्॥
                                                                                                     (अ. 12/122) 


         भावार्थ:- जो सबको शिक्षा देने हारा, सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्वप्रकाशस्वरूप समाधिस्थ बुद्धि से जानने योग्य है, उसको परमपुरूष जानना चाहिए। अतः संसार का प्रथम स्वंयभू-गुरू परमेश्वर हुआ। समाज व संस्कृति के निर्माणोपरान्त अन्य जो भी ज्ञान देने हारे अर्थात् गुरूत्व के पात्र माने गए है, उनके विषय में स्वामी जी सत्यार्थ प्रकाश के दूसरे समुल्लास में उल्लेख करते है - 


                                              'मातृमान - पितृमानाचार्यवान् पुरूषो वेद।"
                                              (1. तुलना शत्पथ ब्रा, का. 14, प्रपा. 5/ब्रा. 8/कं. 2)
                                              (2. छा. उ. प्रपा. 6 / ख. 14)


         भावार्थ:- जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है। वह कुल धन्य-धन्य! वह सन्तान भाग्यवान!! जिसके माता-पिता धार्मिक विद्वान हों, जिनसे अच्छी शिक्षा, विद्या, धर्म, परमेश्वर के विषय में मिले, ऐसे आचार्य हों। जो पूर्ण विद्यायुक्त-धार्मिक हों, वे ही पढ़ाने और शिक्षा देने योग्य हैं। 


स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेद-वेदांग के उद्धरणों के अतिरिक्त मनुस्मृति को भी प्रमाणिक माना हैं। मनुस्मृति से अन्य उधारण इस प्रकार हैं:-


                                            "आचार्यो ब्राह्मणो मूर्तिः" (मनुष्यति 2/226) 


        आचार्य ब्रह्ममूर्ति हैं। गणगरिमा के क्रम में ये उपाध्याय से दस गुना श्रेष्ठ होते हैं, आचार्य से सौ गुना श्रेष्ठ पिता तथा पिता से सहस्त्रागुणा श्रेष्ठ और गौरवमयी माना होती हैं:-


                                              "उपाध्यायान दशाचार्य आचार्यानां शतं पिता।
                                              सहस्त्रं तुपितृम माता, गौरवेणाति रिच्यते॥" (मनस्मति 2/145)


        वेदिकोत्तर अन्य मनीषियों व भक्त-कवियों ने भी गुरूगरिमा पर लखना उठाई है। इनमें महाराज भर्तहरि महामात्य चाणक्य, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास आदि विशेषगण्य हैं।


         मौर्य वंश के महामात्य विष्णगप्त चाणक्य तीक्ष्ण बुद्वि. प्रकाण्ड संस्कृतज्ञ एवं शासन-व्यवस्था के पारंगत हुए हैं उनका ग्रन्थ "कौटिल्य का अर्थशास्त्र" आज भी प्रासंगिक माना जाता हैं। इन्होंने भी परम परूष परमात्मा को आदि गुरू माना हैं। फिर भी अपनी तीखी-स्पष्टवादिता एवं व्यंग्यात्मकता के कारण गुरूगरिमा वर्णन में इन्होंने आदि गुरू की सृष्टि रचनना पर ही प्रश्न-चिह्न लगादिए-


              "गन्धे सवर्णों, फलमिक्षुदण्ड, नाकारि पुष्प खलु चन्दनेषु। 
              विदवान धनाढयो न तु दीर्धजीवी, धातु पुराकोपिन बुद्धि दा भूत।" (चाणक्यनीति 9.3) 


          अर्थातः- सृष्टिकर्ता स्वयंभू थे। उनसे पहले और बड़े कोई नहा होने के कारण उनका कोई गुरू हुआ ही नहीं। गुरू के ज्ञान से वाचत हो कर जब उन्होंने सृष्टि की रचना की तो उनसे पांच भूलें हो गई:-


            प्रथम यह कि उन्होंने सोना जैसा बहुमूल्य धातु तो बनाया, किन्तु उसमें सुगन्ध नहीं दी।
          द्वितीय यह कि ईख जैसा पौधा, जिसका रोम-रोम, रेशा-रेशा मिठास से भरा है, किन्तु उसमें फल लगता तो वह कैसा होता-कितना मोठा होता ? 
          तीसरी परमात्मा ने चन्दन जैसा वृक्ष उत्पन्न किया जिसका पत्ते से लेकर जड़ तक सुवासित है, पर उसमें फूल नहीं दिया।
          चौथी और पांचवी भूल के रूप में उन्होंने विद्ववानों को धनाढ्य और दीर्ध जीवी नहीं बनाया। 
इन सब त्रुटियों का एकमात्र कारण जान पड़ता है:-


गुरू के बिना ज्ञान का अभाव !
         परम गुरू पर किए गए व्यंग्यात्मक प्रहार पर स्थूल दृष्टि से तो यही लगेगा कि महामात्य चाणक्य आत्माभिमान ग्रस्त रहे होगें अथवा नास्तिक। यदि सूक्ष्म दृष्टि उपर्युक्त कटाक्षों पर डाली जाए तो उनका अभिप्राय एक दम सटीक-विनोदात्मक प्रतीत होगा। इनके द्वारा गिनाई गई भूलें यदि परमात्मा ने नहीं कि होती और उल्लिखित प्रावधान कर दिए होते तो क्या ऐसी विद्रूपता नहीं उपजती-


1. स्वर्ण में यदि सुगन्ध भर दी होती तो वह कहीं भी सुरक्षित नहीं रह पाता। सुगन्ध के कारण चोर उचक्के उसे छोड़ते ही नहीं।
2. ईख के पौधे में यदि फल लगा दिया होता तो पोर-पोर का मिठास फल में ही एकत्रित होता। उस पर मधुमक्खी व भिण्ड-बरैये मण्डराते ओर नष्ट कर देते, मनुष्य मात्र उसकी मिठास से वंचित रह जाता।
3.चन्दन वृक्ष में यदि फूल लगा दिया होता तो उसके पत्ते, जड और तनों की सुगन्ध लघु फूलों में ही समाहित हो जाती ओ नश्वर है अर्थात् वृक्ष उँठ मात्र रह जाता। किवा चन्दन का स्थायित्व समाप्त हो जाता l
4. व 5. विद्ववानो का कार्य समाज में ज्ञान बांटना है इस सेवा के ऐवज में वे कुछ भी नहीं लेते। यदि वे ज्ञान बांटकर धनार्जन करते तो धन ज्ञान पर भारी पड़ता, विद्ववान अंहकार के वशीभूत हो विनाशोन्मुखी हो जाते लंकापति रावण का उदाहरण पर्याप्त है जो विद्ववान तो था किन्तु अकूत सम्पत्ति का स्वामी होने के कारण अंहकारग्रस्त हो मतिभ्रष्ट हआ। अन्ततोगत्वा उसका वंशनाश हुआ l


         वर्तमान में हम ज्ञान और विज्ञान का प्रसार तो देख रहे हैं जो बिना सक्षम गुरूओं के हो रहा है। आज ज्ञानार्जन का एक मात्र ध्येय अर्थोपार्जन ही रह गया है। जो अनर्थकारी परिस्थितियों का ही निर्माण कर रहा है।


 


ईश्वर दयाल माथुर, सिद्धान्त भास्कर
-157. सन्तोष नगर, न्यू सांगानेर रोड़, जयपुर-302019, मो. 9351219348


 



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