पाखण्ड-खण्डिनी पताका


पाखण्ड-खण्डिनी पताका


       हारद्वार में प्रत्येक बारह वर्ष के बाद कुम्भ का भारी मेला होता है। दिन स्त्री-पुल्य और साथ लाखों की संख्या में वहाँ इकट्ठे होते हैं। वे मा हैं कि कुम्भ पर गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और मस्तिमि जाती है. मनुष्य मर कर फिर जन्म लेने से छूट जाता है। संवत् 1924 के कैत्र मास में ऐसा ही भारी कुम्भ का मेला था। स्वामीजी भी धर्म-प्रचार के विचार से वहाँ जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने क्या देखा कि साधु और पडे धर्म का उपदेश देकर लोगों को सीधे रास्ते पर लाने की जगह उलटा पाखंड करके उन्हें लूट रहे हैं। सत्य धर्म पर चलने के स्थान में संसार अज्ञान के गहरे गढ़े में गिर रहा है। हर की पैड़ी हाड़ की पैड़ी बन रही है। और गंगा में डुबकी लगाने से ही सब पाप दूर हो जाते हैं, इस विश्वास से लोग अंधाधुन्च नदी में डुबकियाँ लगा रहे हैं।


      इस दृश्य को देखकर दुनिया को दुःखों से छुडाने का व्रत लेनेवाले महात्मा के हृदय पर गहरी चोट लगी। उन्होंने साधुओं और इण्डों के इस पाखण्ड की पोल खोलने का निश्चय किया। बस फिर क्या था, एक दिन यात्रियों ने देखा कि हरिद्वार से ऋषिकेश को जानेवाली सड़क पर एक संगोट बंद संन्यासी हाथ में झण्डी लिये सिंह के समान गरज-गरज कर उपदेश दे रहा है। उसकी झण्डी पर "पाखण्ड-खण्डिनी पताका' लिखा हुआ है। वह साधओं और पण्डों की कप्तें दिखला कर गंगा-माहात्म्य की धज्जियां उड़ा रहा है।


       सच्चे संन्यासी की गरज से उस बड़े मेले में भारी हलचल मच गई। आज तक लोगों ने किसी संन्यासी को श्राद्ध, मूर्ति-पूजा, अवतार और गंगा-स्नान से मुक्ति मिलने का खण्डन करते और पुराणों को झूठा कहते नहीं सुना था। इसलिए सहस्त्रों की संख्या में नर-नारी उसका उपदेश सुनने के लिए आने लगे। स्वामीजी सबसे यही कहते, हर की पैड़ी पर नहाने पाप नहीं धुलते। वेद की शिक्षा पर चलो। अच्छे काम करो। इसी से सुख और मुक्ति मिलेगी। धर्मग्रन्थों का पढ़ना-सुनना और धर्मात्मा पुरुषों की सत्संगति ही सच्चा तीर्थ है।


     आने को तो सहस्त्रों लोग उपदेश सुनने आते, परन्तु वे केवल सुनकर ही चले जाते। उन पर चलनेवाला एक भी न निकलता। यह देख स्वामीजी को निराशा हुई। उन्होंने सोचा, मेरे तप में कुछ कमी है जो मेरी बात का कुछ असर नहीं होता। बस, उन्होंने तपस्या करने की ठान ली। अपने सब वस्त्र उतार कर फेंक दिये। महाभाष्य की एक कापी, सोने की एक मुहर और मलमल का एक थान गुरुदेव के चरणों में मथुरा भेज दिया। कैलास पर्वत नाम के साधु ने पूछा, महाराज आप यह क्या कर रहे है? स्वामीजी ने उत्तर दिया, जब तक अपनी आवश्यकताओं को कम न किया जाय, पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती, और कार्य में सफलता भी नहीं हो सकतीवैदिक धर्म के विरुद्ध जितने भी पन्थ और मत फैल रहे हैं मैं उन सबका खुले तौर पर खण्डन करना चाहता हूँ। इसलिए साँसारिक आवश्यकताओं और सुख-दुःख से ऊपर होना चाहता हूँ।


       स्वामीजी ने पुस्तकें आदि छोड़ कर सारे शरीर पर राख रमा ली; और तट पर केवल एक कौपीन रख कर चुप रहने का व्रत ले लियाजो शेर आदम किसी समय लाखों के समूह में गरजता था, जिसकी गरज से झूठे मतों और पंधों की दिल दहल रहे थे, वह अब चुप होकर अपनी कुटी में बैठ गया। बात-चीत करना बंद हो गया। परन्तु कब तक? जिस महात्मा ने यह पाठ पढ़ा हो कि चुप रहने से सत्य बोलना अच्छा है, वह कब तक चुप रह सकता था? एक दिन किसी ने उनकी कुटी के निकट आकर संस्कृत में कहा कि वेद से भागवत् पुराण अच्छा है। इस झूठ को सुनकर महाराज ने फौरन मौन-व्रत छोड़ दिया और भागवत पुराण के खंडन में लग गये । अब स्वामी दयानन्द नगर-नगर और स्थान-स्थान में घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार करने लगे। उनकी प्रतिज्ञा थी कि वेद में मूर्ति-पूजा की आज्ञा नहीं। बहत से लोग उनके साथ शास्त्रार्थ करने आते, परन्तु हार खाकर चले जाते। कर्णवास में हीरावल्लभ नाम के एक बहुत बड़े पण्डित थे। वे नौ और पण्डितों को साथ लेकर स्वामीजी से शास्त्रार्थ करने आये । आते हुए साथ वे पत्थर की एक मूर्ति भी उठा लाये और प्रतिज्ञा की कि जब तक दयानन्द से इसकी पूजा न करा लूँगा, वापस न जाऊँगा।


      कोई एक सप्ताह तक रोज नौ-नौ घंटे शास्त्रार्थ होता रहा। दोनों ओर से बड़ी तेजी के साथ संस्कृत बोली जाती थी। अन्तिम दिन पण्डितजी उठे और ऊँचे स्वर से कहने लगे- स्वामीजी महाराज जो कुछ कहते हैं, वह सब ठीक है। इतना कहकर उन्होंने अपनी मूर्तियाँ उठाई और गंगा में फेंक दीं। उनको देखकर बाकी पण्डितों और नगर-निवासियों ने भी अपनी-अपनी मूर्तियाँ घर से लाकर गंगा की भेंट कर दीं। हीरावल्लभजी ने मूर्तियों की जगह सिंहासन पर वेद को स्थापित कर दिया।


      कर्णवास में इस शास्त्रार्थ की बड़ी धूम मच गई। बहुत से ठाकुर लोग स्वामीजी महाराज के पास आकर उपदेश लेने लगे। स्वामी जी उन्हें जनेऊ देकर गायत्री का गुरु-मंत्र देते थे। गंगा के किनारे घूमते हुए भगवान् दयानन्द ने इस प्रकार गायत्री के उपदेश से सहस्त्रों नर-नारियों को धर्म का अमृत पिला कर उनका कल्याण किया।


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