धर्म और अधर्मयुक्त
प्र.) मनुष्य का आत्मा सदा धर्म और अधर्मयुक्त किस-किस कर्म से होता है?
उ.) जब तक मनुष्य सर्वान्तर्यामी, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापक, सर्वकर्मों के साक्षी परमात्मा से नहीं डरते अर्थात् कोई कर्म ऐसा नहीं है जिसको वह न जानता हो। सत्यविद्या, सुशिक्षा, सत्पुरुषों का सङ्ग, उद्योग, जितेन्द्रियता, ब्रह्मचर्य आदि शुभ गुणों के होने और लाभ के अनुसार व्यय करने से धर्मात्मा होता है ओर जो इससे विपरीत है वह धर्मात्मा कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जो राजा आदि अल्पज्ञ मनुष्यों से डरता और परमेश्वर से भय नहीं करता वह क्यों कर धर्मात्मा हो सकता है? क्योंकि राजा आदि के सामने बाहर की अधर्मयुक्त चेष्टा करने में तो भय होता है परन्तु आत्मा और मन में बुरी चेष्टा करने में कुछ भी भय नहीं होता क्योंकि ये भीतर का कर्म नहीं जान सकते। इससे आत्मा और मन का नियम करने हारा राजा एक आत्मा और दूसरा परमेश्वर ही है मनुष्य नहीं और वे जहां एकान्त में राजादि मनुष्यों को नहीं देखते वहाँ तो बाहर से भी चोरी आदि दुष्ट कर्म करने में कुछ भी शंका नहीं करते।