धर्म और अधर्म


धर्म और अधर्म


      ऐसे मौलिक सिद्धान्त जो मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के आधार हों धर्म कहलाते हैं। 


सत्य यह धर्म, असत्य यह अधर्म।


न्याय यह धर्म, अन्याय यह अधर्म।


निष्पक्ष यह धर्म, पक्षपात यह अधर्म।


अहिंसा परमो धर्मः (महाभारत)


      अर्थात् वैर भाव का त्याग सबसे बड़ा धर्म है


धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचम् इन्द्रियनिग्रहः।


धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ (मनुस्मृति)


      इस श्लोक के द्वारा महर्षि मनु ने. धर्म के दस लक्षण बताए हैं।


      १. धृति-सुख, दु:ख, हानि, लाभ, मान, अपमान में धैर्य रखना।


      २. क्षमा-सहनशीलता। बलवान् होकर निर्बल को कष्ट दिया और निर्बल ने सह लिया, यह क्षमा नहीं है अपितु असमर्थता है। शरीर में सामर्थ्य होने पर भी बुराई का बदला न लेना क्षमा है।


     ३. दम-मन को बुरे चिन्तन से हटाकर अच्छे कामों में लगाना।


     ४. अस्तेय-अन्याय से धन आदि ग्रहण न करना तथा बिना आज्ञा दूसरे का पदार्थ न लेना ही अस्तेय है। अर्थात् चोरी, डाका, रिश्वतखोरी, चोर बाजारी आदि का त्याग करना।


      ५. शौच-शरीर के अन्दर की तथा बाहर की शुद्धि रखना। बाहर की शरीर आदि की शुद्धि से रोग उत्पन्न नहीं होते जिससे मानसिक प्रसन्नता बनी रहती है। बाहर की शुद्धि का प्रयोजन मानसिक प्रसन्नता ही है। अन्दर की शुद्धि राग, द्वेष आदि के त्याग से होती है। शुद्ध सात्त्विक भोजन तथा वस्त्र, स्थान मार्ग आदि की शुद्धि भी आवश्यक है। 


      ६. इन्द्रियनिग्रह-हाथ, पांव, मुख आदि इन्द्रियों को अच्छे कामों में लगाना।


      ७. धी-बुद्धि बढ़ाना। मांस, शराब, तम्बाकू आदि के त्याग से, ब्रह्मचर्य यानि वीर्य रक्षा से, अच्छी पुस्तकों के अध्ययन से, उत्तम औषधियों के सेवन से, दुष्टों के संग व आलस्य त्याग आदि से बुद्धि बल बढ़ाना।


      ८. विद्या-तिनके से लेकर ईश्वर तक सभी पदार्थों का ठीक ठीक ज्ञान प्राप्त करना तथा उनसे यथार्थ उपकार लेना


      ६. सत्य-जैसा अपने ज्ञान में हो वैसा ही मानना, वैसा ही कहना और वैसा ही करना सत्य कहलाता है।


      १०. अक्रोध-इच्छा के विघात से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसका त्याग करना चाहिये।


             आचारः परमो धर्मः। (मनुस्मृति) 


      शुभ गुणों के आचरण का नाम ही धर्म है। 


            न लिङ्गम् धर्मकारणम्। (मनुस्मृति।


      बाहरी चिह्न किसी को धर्मात्मा नहीं बनाते। कपड़े कैसे पहनें या बाल कैसे रखें आदि बातें देश, काल, ऋतु और रुचि पर आधारित हैं। काला या पीला चोगा पहनना, कण्ठी माला धारण करना, तिलक लगाना, जटा बढ़ाना आदि बातों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।


धर्म 'धृ' धातु से बना है। धृ का अर्थ धारण करना है तथा धर्म का अर्थ धारण करने योग्य अर्थात् अपनाने योग्य गुण। 


वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।


            एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनुस्मृति)


       अर्थ-वेद, स्मृति, सत्पुरुषों का आचार तथा अपनी आत्मा की आवाज ये चार धर्म के लक्षण हैं। अर्थात् इन्हीं से धर्म-अधर्म का निश्चय होता है।


       मानवता अर्थात् मानवीय गुणों का अपनाना ही वास्तव में सब मनुष्यों का धर्म है। वेद कहता है 'मनुर्भव'। ऐ मनुष्य तू वास्तव में मनुष्य बन।


       “जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है उसी का नाम धर्म और इसके विपरीत जो पक्षपात सहितं अन्यायाचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहण रूप कर्म है उसी को अधर्म कहते हैं।"


-महर्षि दयानन्द सरस्वती


      अधर्म दस प्रकार के हैं-


      मानसिक अधर्म तीन प्रकार के हैं :-


       १. दूसरों के पदार्थों को चुराने की इच्छा करना।


       २. लोगों का बुरा चिन्तन करना, मन में ईर्ष्या द्वेष करना।


       ३. गलत काम करने का निश्चय करना।


       वाचिक अधर्म चार हैं :-


       १. कठोर बोलना।


       २. झूठ बोलना।


       ३. चुगली करना।


       ४. जानबूझकर बात को उड़ाना।


      शारीरिक अधर्म तीन हैं :-


      १. चोरी करना।


      २. हिंसा करना।


      ३. रण्डीबाजी, व्यभिचार आदि करना।


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