धन कमाने में पवित्रता


धन कमाने में पवित्रता


       धन मनुष्य जीवन के लिए परमावश्यक वस्तु है। वेद ने खूब धन कमाने का आदेश दिया है। परन्तु कैसे ? मेहनत और ईमानदारी से। यही सभी के हित में है।


अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवे दिवे। 


यशसं वीरवत्तमम्॥ (ऋग्वेद)


      अर्थ-मनुष्य पुष्टिकारक, यशदायक और बलदायक धन ऐश्वर्य को ही प्रतिदिन अपने घोर परिश्रम से प्राप्त करे।


नेहेतार्थान्प्रसङ्गेन न विरुद्धेन कर्मणा.


              न विद्यमानेष्वर्थेषु नाामपि यतस्ततः॥ (मनुस्मृति)


      अर्थ-कभी भी किसी दुष्ट के प्रसंग से धन इकट्ठा न करे, न गलत काम से और न किसी वस्तु के होते हुए उसे छिपा करके ही। चाहे कितना भी दुःख उठाना पड़े तो भी पाप से धन न बटोरे।


सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम।


              योऽर्थे शुचिर्हि स शुर्चिन मृद्वारिशुचिः शुचिः॥ (मनुस्मृति)


      अर्थ-सभी प्रकार की शुद्धियों में अर्थ से सम्बद्ध शुद्धि ही परम शुद्धि है। जो धर्म (न्याय) ही से पदार्थों का संचय करना है वही सब पवित्रताओं में उत्तम पवित्रता है अर्थात् जो अन्याय से किसी पदार्थ का ग्रहण नहीं करता वही पवित्र है। किन्तु जल, मिट्टी आदि से जो पवित्रता होती है वह धर्म के समान उत्तम नहीं है।


       ब्याज लेने देने के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने ग्रन्थ 'संस्कार-विधि' में लिखते हैं-सवा रुपये सैकड़े (मासिक) से अधिक, चार आने (२५ पैसे) सैकड़े से कम ब्याज न लेवे और न देवे। जब दूना धन आ जाए उससे आगे और न लेवे और न देवे। जितना कोई कम ब्याज लेगा उतना ही उसका धन बढ़ेगा और कभी धन का नाश और बुरी संतान उसके घर में न होंगे


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