दयालु दयानन्द की दया


दयालु दयानन्द की दया


       प्रयाग की बात हैस्वामीजी गंगा-तट पर बैठे प्रकृति का दृश्य देख रहे थे। उस समय उनके सामने एक स्त्री मरा हआ बच्चा हाथों पर उठाये गंगा में घुस गईकुछ गहरे पानी में जाकर उसने बालक के शरीर पर लपेटा हुआ कपड़ा उतार लिया और उसकी लोथ को हाय, हाय करते हुए पानी में बहा दिया। 


     यह देख महाराज के हृदय पर बड़ी चोट लगी। वे अपने को सँभाल न सके। उन्होंने देखा कि वह स्त्री कफन को धो कर हवा में सुखाती और रोती हुई घर को जा रही हैस्वामीजी ने मन ही मन कहा कि हा! यह भारत इतना कंगाल हो गया कि माता अपने कलेजे के टुकड़े को तो नदी में बहा चली है, परन्तु कफन को उसने इसलिए नहीं बहाया कि कपड़े का मिलना कठिन है। अब तक महाराज केवल संस्कृत ही बोला करते थेपरन्तु अब उन्होंने प्रण कर लिया कि कुछ काल तक इन्हीं लोगों की भाषा में प्रचार करके इनके दुःखों को दूर करने का उपाय ढूँढूँगा।


     लखनऊ की बात है। महाराज व्याख्यान देकर अपने आसन को आ रहे थे। रास्ते में एक बहुत दुबली-पतली और भूखों से अध-मई भिखारिन मिली। उसके शरीर पर चिथड़े लटक रहे थे। महाराज को आते देख वह रोकर बोली-"बाबा, मैं कई दिनों की भूखी अनाथा हूँमुझे रोटी-कपड़ा देनेवाला कोई भी नहीं है। भगवान् तेरा भला करेगा। आज की रोटी तो दिला दे।"


   उस बुढ़िया का रोना सुनकर स्वामीजी ठहर गये। उसका दुःख देखकर उनका हृदय पिघल गया। उनके नेत्रों से टप-टप आँसू बरसने लगेवे अपने साथियों से वोले, "कभी वह भी समय था जब यह भारत सुवर्ण-भूमि थायहाँ दूध और दही की नहरें बहती थी। पशु-पक्षी तक को भूख का कष्ट न सहना पड़ता था। परन्तु आज वह दिन आ गया है कि मारे भूख के इस बुढ़िया को इतनी भी समझ नहीं रही कि जिससे मैं माँग रही हूँ वह तो आप दूसरों से माँग कर निर्वाह करता है।"


       महाराज ने इस बुढ़िया को काफी अन्न दिला दिया। विद्या, ब्रह्मचर्य और तपोवल के कारण स्वामीजी महाराज का सब कहीं आदर और मान था। बड़े-बड़े लोग आपके, भक्त थे। सहस्त्री नर-नारी आपके लिए पूजा-भाव रखते थे। काशी की बात है। एक दिन महाराज वाहर घूमने जा रहे थे। एक जगह आपने देखा कि भारी बोझ से लदा हुआ एक छकड़ा कीचड़ में फँसा पड़ा है। छकड़ेवाला बैलों पर तड़ा-तड़ डंडा बरसा रहा है। पर वे बेचारे उस भारी वोझ को बाहर नहीं निकाल सकते। महाराज को बैलों पर बड़ी दया आई। वे झट कपड़े उतार कर कीचड़ में घुस गये। जाते ही उन्होंने वैलों को खोल कर बाहर कर दियाफिर उस छकड़े को जोर से खींच कर कीचड़ से बाहर ले आये। जिस बोझ को दो बैल न खींच सके थे उसे एक ब्रह्मचारी ने अपनी भुजाओं के बल से खींच लिया।


      और कोई होता तो अपने बड़प्पन में ही रहता। इतना बड़ा आदमी होकर वह कभी इस प्रकार दलदल में फंसे हुए छकड़े को निकालने का यत्न न करतापरन्तु दयानन्द दया के अवतार थे। इसीलिए तो वे सच्चे महापुरुष थे।


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