दर्शन की परिभाषा


दर्शन की परिभाषा


      हमने दर्शन की यही परिभाषा की है दो से देखना, दो को देखना, मात्र चर्मचक्षुओं से दर्शन हैदेखे हुए को पीछे जो सत्य है उसे परमचक्षु से देखना दर्शन है। वे परमचक्षु तो मात्र वेद हैं। भगवान् व्यास अपना परिचय यही कह कर देते हैं वेदाः मे परमं चक्षुः-वेद ही मेरे परमचक्षु हैंआचार्य के उपनयन देने का यही अभिप्राय है कि अन्तेवासी को विद्या-चक्षु, वेद-चक्षुः प्राप्त हो जाए। भगवान् मनु के शब्दों में  वेदश्चक्षुः सनातनम्।


       ऊपर की पंक्तियों में हमने दर्शन की परिभाषा यह की है कि चर्मचक्षुओं से देखे हुए पदार्थ के पीछे जो सत्य है उसे परमचक्षु से देखना दर्शन है-ईक्षितस्य ईक्षणं दर्शनम्। इस परिभाषा का मूल उद्गम ईशोपनिषद् की प्रसिद्ध ऋचा 'हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्, तत् त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये३' है अर्थात् हिरण्मयपात्र वह आवरण है जिसके पीछे सत्य छिपा है। हिरण्मयपात्र सूर्य है। निःसन्देह इतना आकर्षक है कि दर्शक उसी पर मोहित हो जाता है। उसके पीछे छिपे हुए सत्य को देख नहीं पाता जिसके कारण इस पात्र को हिरण्मयता प्राप्त है, जबकि यजुर्वेद की ऋचा में स्पष्ट कहा है-


      योऽसौ आदित्ये पुरुषः सोऽसावहम् ओम् खं


      ब्रह्म-ब्रह्म-जो आदित्य के पीछे पुरुष है वह मैं ओम् हूँ। यह हुई दर्शन की उद्गम श्रुति।


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