दायित्व बढ़ गया है


दायित्व बढ़ गया है


            सूरज अस्ताचल की ओर चला जारहा था। सुनसान बियावान में अंधेरी छायाएं और अधिक काली होती चली जारही थीं। जंगल का ऊबड़-खाबड़ रास्ता, दूर दूर तक ऐसा कोई नज़र नहीं पाता था जिससे सुख-दुःख की बात की जा सके या जो यह तो पूछ ले कि तुमको जाना कहाँ है ? सारा जंगल अपने से ही डरा हुया लगता थानिर्भीक थी तो शारदा, अठारह वर्ष की यूवती। सघन वन में पगडंडी पर अकेली चली जारही थी । जाना था अपने पति रामकृष्ण परमहंस से मिलने ।


          शारदा का विवाह बचपन में ही हो गया था । जब तक वह युवती हुई तब तक रामकृष्ण तो साधना के मार्ग पर बहुत आगे बढ़कर परमहंस हो गए थे । शारदा समझदार थी। पति की साधना में बाधक नहीं बनना चाहती थी। पर, पत्नी थी। अपने पति से मिलने का अधिकार तो नहीं छोड़ सकती थी। इसी अधिकार से चली जा रही थी अकेली ही। सब अपने आदमी हैं। अपनी धरती है। वन है तो क्या हुआ ? जंगली जानवर भी तभी आक्रमण करते हैं जब उनको छेड़ा जाए। उसे पक्का भरोसा था कि उसका कोई कुछ न हीं बिगाड़ सकता क्यों कि वह एक साधक की पत्नी थी।


            उसका ध्यान तब भंग हुआ जब उसने कठोर आवाज़ में सुना-ठहरो ! कौन हो तुम ? कहां चली जा रही हो ?


          शारदा ने निडर होकर उत्तर दिया-मैं ? तुम्हारी कन्या हूँ शारदा । नहीं पहचानते ? अपने पति से मिलने जा रही हूँ, तुम्हारे जामाता से ।


          आवाज़ सुन्दरवन के कुख्यात डाकू की थीडाक कुछ बोलता उसके पहले उसकी पत्नी ने पाकर शारदा को छाती से लगा लिया । बोली-सचमुच बेटी है, अपनी बेटी। जामाता के पास अकेली जा रही है। रास्ता खराब है । रात का समय हैजंगली जानवर मिल सकते । चलो, इसे छोड़ आते हैं जामाता के पास ।


          सबको प्रातकित करने वाला डाकू । पिता का हृदय उसमें भी धड़क रहा था। केवल उसको छूने की ज़रूरत थी। शारदा ने छू दिया। डाकू आदमी बन गया । एक अच्छा पिता, एक अच्छा पति, एक अच्छा ससुर ।


          नारी को कोमलता इसलिए मिली है कि वह आदमी में खोई हुई मनुष्यता को कोमल स्पर्श देकर जगाए। माना कि सड़कों पर मानवाकृति में भेडिए बढ़ते जा रहे हैं; पर डरो मत । निर्भीक बनो । अब दायित्व और बढ़ गया है। पीछे मत हट जाना अन्यथा मनुष्यता खो जाएगी। उसे तुम ही जगा सकती हो।


-पंचोली


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