दान किसे दें


दान किसे दें 


       सुपात्र को दान देना एक शुभ कर्म है, परन्तु कुपात्र को देना अशुभ |


       सपात्र कौन-गरीब, रोगी, अंगहीन (अपाहज), अनाथ, कोढ़ी, विधवा या कोई भी ज़रूरतमंद, विद्या और कला कौशल की वृद्धि, गोशाला, अनाथालय, हस्पताल आदि दान के सुपात्र हैं।


      अगर कोई व्यक्ति दान लेकर उस धन को शराब, मांस, तम्बाकू, जुआ, सट्टा, व्यभिचार आदि दुष्कर्मों में लगाता है उससे उसके मन, बुद्धि, आत्मा और शरीर की हानि होती है। अत: उसे सुख की बजाए दु:ख भोगना पड़ता है। इसमें भागी दान देने वाला भी होता है। जैसे पत्थर की नाव में बैठने वाला तथा नाव दोनों ही डूबते हैं ।


न पापत्वाय रासीय। (अथर्ववेद)


      अर्थात् मैं पाप कर्म के लिए कभी दान न हूँ।


धनिने धनं मा प्रयच्छ। दरिद्रान्भर कौन्तेय। (महाभारत)


     अर्थात् हे युधिष्ठर ! धनवानों को धन मत दो, दरिद्रों की पालना करो


      भरे-पेट को रोटी देना उतना ही गलत है जितना स्वस्थ को औषधि। रोटी भूखे के लिए है और औषधि रोगी के लिए है। समुद्र में वर्षा हुई व्यर्थ है। 


      सृष्टि में ईश्वर का ऐसा नियम है कि जो कोई किसी को जितना सुख पहुंचाता है ईश्वर के न्याय से उतना ही सुख उसे भी मिलता है। इसलिये दान का उद्देश्य प्राणियों को अधिक से अधिक सुख पहँचाना होता है। कठोपनिषद में लिखा है ऐसा दान जिसके लेने से लेने वाले को सुख न मिले, देने वाले को भी आनन्द नहीं मलता


       गीता में तीन प्रकार का दान बताया गया है।  


        सात्त्विक दान-उचित समय पर तथा उचित स्थान पर किसी ऐसे सुपात्र का सत्कारपूर्वक दिया हुआ दान जिससे किसी प्रतिफल की आशा न हो सात्विक दान कहलाता है।


      राजसी दान-प्रतिफल की आशा से या भविष्य में किसी लाभ की आशा से दिया हुआ दान और जिसे देने में दुःख होता हो ऐसा दान राजसी दान होता है।


      तामसी दान-गलत स्थान पर और गलत समय पर कुपात्र को बिना उचित सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक दिया हुआ दान तामस दान है।


      तैत्तिरीय उपनिषद् में प्राचीन काल का एक दीक्षान्त भाषण है। उसमें आचार्य अपने शिष्य को स्नातक होने पर और उपदेश के साथ-साथ यह भी उपदेश देता है-"श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। हिया देयम्। भिया देयम्। सविदा देयम्।" अर्थात् यदि दान देने में श्रद्धा है तो दान देना, यदि श्रद्धा नहीं भी है तो भी दान देते रहना। संसार में यश पाने के ख्याल से दान देना। दूसरे लोग दान दे रहे हैं, उन्हें देखकर लज्जावश भी दान देना। इस भय से भी दान देना कि यदि नहीं दूंगा तो परलोक न सुधरेगा, कमाया हुआ धन भी सार्थक न होगा। इस विचार से भी दान देते रहना कि गुरु के सामने प्रतिज्ञा की थी कि दान दूंगा 


सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।


              वार्यन्नगो-महीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम्॥ (मनुस्मृति)


       अर्थ-संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, घृत आदि इन सब दानों से वेद विद्या का दान अति श्रेष्ठ है।


       इसलिये जितना बन सके उतना प्रयत्न तन, मन, धन से विद्या की वृद्धि में किया करें।


      महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि यदि ब्राह्मण विद्यार्थियों को पढ़ाकर के दक्षिणा लेता है या यज्ञ करवा के दक्षिणा लेता है और इस प्रकार से अपनी आजीविका करता है तो यह उत्तम कार्य है। यह दान नहीं कहलाता। बिना कुछ किए अपने निर्वाह अर्थ दूसरों से धन या पदार्थ लेना नीच कर्म है।  


 


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