ब्रह्मचारी की समिधा


ब्रह्मचारी की समिधा


      . वैदिक पद्धति में यह आवश्यक है कि जब कोई शिष्य आचार्य के पास उपदेश ग्रहण करने जाए, तो समित्पाणि होकर जाए। समित्पाणि होने का अर्थ हैशिष्य द्वारा अपने 'स्व' को पूर्णरूपेण समर्पित कर देना। इसी के परिणामस्वरूप आचार्य उसे ज्ञानदीप्ति से आलोकित कर सकता है। मूर्त ब्रह्मचारी ही वह समित् साधन है, जिसमें श्रद्धारूप अग्नि और सत्यरूप आज्य एक हो जाते हैं। यज्ञ में यजमान के हाथ की समिधा ही वह साधन होती है, जो यज्ञाग्नि और यज्ञहवि (आज्य) को एक करती है। यही समिधा शब्द में आए हुए सम् उपसर्ग का स्वारस्य है। 'सम् इत्येकीभावे', और उसमें पड़ा हुआ 'इन्धि दीप्तौ' धातु जहाँ उसके एक होकर दीप्त होने की सूचना है, वहाँ अपने समर्पण द्वारा यज्ञाग्नि और यज्ञहवि को ही दीप्त करना अभीष्ट हैब्रह्मचारी के इस यज्ञ में जहाँ वह स्वयं समिधा है, वहाँ आचार्य अनि है और विद्या आज्य है, ब्रह्मचारी समर्पण द्वारा आचार्य की विद्या से जहाँ अपने-आप को दीप्त करता है, चमकता है, वहाँ आचार्य की विद्या को भी चमकाता है, दीप्त करता है।


      सूक्त में लिखा है कि ब्रह्मचारी तीनों लोकों को समिधा बनाकर ले आया-'इयं समित् पृथिवी द्यौर् द्वितीया उतान्तरिक्षं समिधा पुणाति'-ब्रह्मचारी का स्थूल शरीर पृथिवीलोक, सूक्ष्म शरीर अन्तरिक्षलोक और कारण शरीर द्युलोक है, इसी प्रकार अन्नमय, प्राणमय और मनोमय तीनों कोष, अथवा उदर, हृदय, मस्तिष्क, तीनों समिधाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रह्मचारी तीन समिधाएँ क्या ले आया, मानो अपना सर्वस्व ले आया। प्रथम समिधाधान के समय पुकार उठा, "इदमग्नये समिधमाहार्षं बृहते जातवेदसे.....


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