ब्रह्मचारी के लिए श्रम
ब्रह्मचारी के लिए श्रम
श्रम ब्रह्मचारी के जीवन का एक आवश्यक अङ्ग है। देवता तो क्या, साधारण मनुष्य भी ऐसे व्यक्ति की मैत्री नहीं चाहते, जो आलसी और प्रमादी होअन्तेवासी आलस्य और प्रमाद से सर्वथा दूर है-उसका सारा जीवन श्रममय बीतना चाहिए। 'न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः२' बिना श्रम किये देवता उसके मित्र नहीं बनते। श्रम से साधारण जन ही नहीं, देवता भी उसका अनुगमन करते हैं। फिर तो 'ब्रह्मचारिणं पितरो देवजना: पृथग्देवा: अनुसंयन्ति सर्वे'। सूक्त के शब्दों में जो अन्तेवासी वीर्य-रक्षा करना चाहता हो, उसे अपनेआपको थका लेना चाहियेउसे कभी एक क्षण के लिए भी खाली नहीं रहना चाहिए। ख़ाली मन ही पाप का आवास हो जाता है-"पापो नृषद्वरो जनः इन्द्र इच्चरतः सखा"। उसका तो सिद्धि-मन्त्र ही है"चरैवैति चरैवैति", "ब्रह्मचारीष्णश्चरति रोदसी उभे", श्रमेण लोकाँस्तपसा पिपर्ति।
ब्रह्मचारी और आश्रम-मर्यादा
ब्रह्मचारी के लिए विश्राम और आराम अपराध हैं, श्रम और परिश्रम वरदान हैं। श्रम और परिश्रम ही नहीं, अपितु उसकी जीवन-व्यवस्था का नाम ही आश्रम है। व्यक्ति का शारीरिक श्रम, श्रम है। सहाध्यायी सखा के साथ मिलकर किया गया श्रम परिश्रम है और कभी न समाप्त होनेवाला और सदैव उसके अभिमुख बना रहनेवाला स्वाध्याय-श्रम 'आश्रम' है। श्रम शब्द से पूर्व वर्तमान आङ् उपसर्ग का यही अभिप्राय है। वह श्रम आश्रम कहला सकेगा, जो न कभी समाप्त हो, जा आबालवृद्ध के लिए अनिवार्य हो और जो समस्त आश्रमियों के लिए एक हो। उसे किये बिना ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यहाँ तक कि संन्यासी भी अपने साथ आश्रम शब्द के प्रयोग करने का अधिका नहीं रहता। उस श्रम की संज्ञा भगवान याज्ञवल्क्य । स्वाध्याय रखी है। स्वाध्याय ही वह श्रम है, जो समस्त श्रमों की पराकाष्ठा है, जो कभी न समाप्त होनेवाला श्रम है, जो प्रत्येक आश्रमी के लिए अनिवार्य है, प्रत्येक वर्णी के लिए आवश्यक है। "ये ह वै के च श्रमाः इमे द्यावापृथिवी अन्तरेण स्वाध्यायो हैव तेषां परमता काष्ठा:" इस प्रकार ब्रह्मचारी केवल श्रम ही नहीं, परिश्रम ही नहीं, परन्तु आश्रम का आचरण करता है। श्रम-साधना का महत्त्व।