ब्रह्मचारी और तप


ब्रह्मचारी और तप


      ब्रह्मचारी की साधना में तपस्या अन्तिम चरण है। सूक्त के २६ मन्त्रों में तप शब्द का प्रयोग दस बार हुआ है। यही इस बात का परिचायक है कि उसके जीवन में तपस्या का कितना महत्त्व है। इसी तपस्या से वह अपने आचार्य को पालित और पूरित करता है। न केवल आचार्य को ही, अपितु अन्य सभी विद्वानों को यहाँ तक कि लोकमात्र में विद्यमान साधारण लोगों को भी अपनी तपस्या से परितृप्त करता है। इसी तपस्या के परिणामस्वरूप समस्त विद्वान् और देवगण उसके अनुगामी हो जाते हैं, उनके समानमनस् हो जाते हैं। इसी तपस्या से प्रस्फुटित दीप्ति को धारण करके वह जनसामान्य से ऊपर उठा रहता है, शरीरस्थ महान् रिपु आलस्य को पास फटकने नहीं देता। यहाँ तक कि मृत्यु से सई करने में वह आनन्द की अनुभूति करता है और अन्ततः 'ब्रह्मचर्येण तपसा' मृत्यु तक को मार डालता है और इसी तपस्या के परिणामस्वरूप पूर्व-समुद्र को पार करके उत्तर-समुद्र में पहुँच जाता हैउसके लिए पूर्व-समद्र ब्रह्मचर्याश्रम है तो उत्तर-समुद्र गृहस्थाश्रम है। वह पूर्व-समुद्र, अर्थात् ज्ञान-समुद्र से उत्तर-समुद्र अर्थात कर्म-समुद्र में तैरने लगता है। वह उत्तीर्ण होने के लिए ही आया हैवह ज्ञान-सलिल में न केवल स्नान करता है, अपितु उसे उत्तीर्ण करके स्नातक बन जाता हैउसका मनोहारी वर्णन ब्रह्मचर्य-सूक्त में इस प्रकार किया है-स स्नातो बभ्रूः पिङ्गलः पृथिव्यां बहुरोचते।' वह स्नातक बभ्रू और पिङ्गल वर्ण धारण किये हुए पृथिवी पर अतिशय रुचिकर होता है।


      ऋतु-विशेषज्ञों का कहना है-ग्रीष्म ऋतु जितनी अच्छी बीतेगी, वर्षा-ऋतु उतनी ही अच्छी होगी; ग्रीष्म में हर चीज जितनी अच्छी प्रकार तप जाएगी, वर्षा-ऋतु में वह उतनी ही फलवती हो सकेगी। आश्रमों को यदि ऋतुओं में आबद्ध करना हो तो ब्रह्मचर्य को ग्रीष्म ऋतु, गृहस्थ को वर्षा-ऋतु कहना होगावर्षारूप गृहस्थाश्रम तभी सफल होगा, जब ग्रीष्म-ऋतरूप ब्रह्मचर्य पूर्णतया तपेगा। तप का महत्त्व शास्त्रों में अनेकत्र वर्णन है- विस्तारभय से हम इतने पर ही सन्तोष करते हैं।


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