ब्रह्मचारी और दीक्षा


ब्रह्मचारी और दीक्षा


      ब्रह्मचारी का जीवन व्रत से आरम्भ होकर, दीक्षा पर समाप्त होता है। दीक्षा का अर्थ है अधिकार-प्राप्ति, लोकभाषा में ठेकेदारी । दीक्षान्त के समय आचार्य जहाँ नव-स्नातक के वर्णों की घोषणा करता है, जहाँ उन्हें ब्राह्मण आदि उपाधियों से अलंकृत करता है, वहाँ वह स्व-स्व वर्णानुसार अज्ञान, अन्याय, अभावरूप दुःखत्रय के निवारण की ठेकेदारी भी देता है-ब्राह्मण को अज्ञान-निवारण की, क्षत्रिय को अन्याय-निवारण की. वैश्य को अभाव-निवारण कीअन्तेवासी वैसे तो व्रतग्रहण के समय से ही दीक्षित हो जाता है, परन्तु उसकी पूर्णता दीक्षान्त में ही जाकर होती हैजिस प्रकार ब्रह्मचर्य-जीवन के व्रत और दीक्षा, पूर्व और उत्तर दो छोर हैं, उसी प्रकार तप और दीक्षा दोनों ही सह-युक्त हैं। शतपथकार ने कहा है कि स्नातकरूप सोम तप और दीक्षा के गमले में तैयार किया जाता है। ब्रह्मचर्य-सूक्त में, जिसे हम शिक्षा-सूक्त भी कह सकते हैं-'समिधा समिद्धः कार्णं वसानः दीक्षितः दीर्घश्मश्रुः '२ में इङ्गित किया गया है। इस प्रकार शिक्षाशास्त्र के कुछ मौलिक आधारों को हमने सङ्केत द्वारा दिखा दिया है। इससे आगे हम ब्रह्मचारी के उन कर्त्तव्यों का वर्णन करेंगे, जो वैदिक-साहित्य में यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं, जिन्हें हम वेद-वर्णित कर्त्तव्यों की प्रतिच्छाया कह सकते हैंजैसाकि हम ऊपर कह आए हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के दो जन्म होते हैं-शरीरतः और विद्यातः। शरीरतः जन्मधारी व्यक्ति का नाम शूद्र, विद्यातः जन्मधारण किये हुए व्यक्ति का नाम द्विज है। द्विज शब्द की व्युत्पत्ति लभ्य–'द्वाभ्यां जन्म संस्काराभ्यां जायते इति द्विजः' भावना का यही सङ्केत हैआचार्य के पास आने से पूर्व ब्रह्मचारी एकज होता है, अर्थात् शूद्र होता है। मनु के शद्र का एकमात्र धर्म शुश्रूषा लिखा है, अतः अन्तेवासी भी शूद्र है। उसका सर्वप्रथम सर्वोपरि धर्म शुश्रूषा है। शद्र जहाँ अन्य वर्णियों की शुश्रूषा करता है, वहाँ ब्रह्मचारी अपने आचार्य, गुरुजन, पितर और देवगण, अतिथि आदि अन्य आश्रमियों की सेवा करता है। शुश्रूषा शब्द का स्वारस्य उसकी धातु में अन्तर्निहित है। 'श्रूञ् श्रवणे' धातु से बना शुश्रूषा शब्द केवल सेवा-धर्म का ही परिचायक नहीं, अपितु श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा का भी परिचायक है। जिस अन्तेवासी में सेवा और सुनने की इच्छा नहीं, वह अच्छा ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। इसीलिए महाभारतकार ने कहा'गुरुशुश्रूषया विद्या' और इसके विपरीत आचरण विद्या के शत्रु हैं। विद्या के शत्रुओं का वर्णन करते हुए, विदुर ने कहा है-'अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवः त्रयः।' ये तीन विद्या के महाशत्रु हैं-अशुश्रूषा, किसी काम में जल्दबाजी, आत्मश्लाघा।


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