भाई-भाई व्यवहार
भाई-भाई व्यवहार
पूज्य पिता के सरल सत्य पर वारि सुधाम धरा धन को।
चले राम, सीता भी उनके पीछे चली गहन वन को॥
उनके भी पीछे लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि तुम कहाँ।
सहज भाव से उत्तर पाया, तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥
श्री लक्ष्मण की भ्रातृ-भक्ति तो ऐसी कुछ भावनामयी है जिसके प्रवाह में कई बार वे उचित-अनुचित का विचार भी नहीं रख पाते। श्री राम भी लक्ष्मण को कम प्रेम नहीं करते। युद्धक्षेत्र में मेघनाद के शक्ति प्रयोग से जब लक्ष्मण संज्ञाहीन (मूर्छित) हो जाते है तो श्री राम का करुण विलाप समस्त वन प्रान्तर को अश्रुपात करने के लिये विवश कर देता है-
जो जनतेउँ वन बन्धु बिछोहू। पिता वचन मनतेउँ नहिं ओहू॥
जथापंख बिनु खगपति दीना। मनि बिन फनि करिवर करहीना॥
अस मम जिवन बन्धु बिनु तोही। जो जड़ दैव जियावै मोही॥
जैहों अवध कौन मुँह लाई। नारि हेतु प्रिय बन्धु गंवाई॥
राम के इन शब्दों में कितनी पीड़ा है, कितना दर्द है और बन्धु प्रेम का कैसा उत्कृष्ट स्वरुप है।
श्री लक्ष्मण के भ्रातृ प्रेम की एक और झाँकी देखियेवीरासन से बैठे हुए वे दण्डकारण्य में रात्रि भर जागकर श्रीराम और सीता का पहरा दे रहे हैं।
श्री भरत का भ्रातृ-प्रेम तो और भी अनूठा है। वह अतुलनीय है। भरत के शब्दों में-
"पिताहि भवति ज्येष्ठों धर्ममार्यता जानतः।
अर्थात्-धर्म को जानने वाले 'आर्य' (श्रेष्ठपुरुष) के निकट बड़ा भाई पिता के समान होता है। अतः भरत केवल इतने पर ही सन्तोष करके नहीं रह जाता कि जो होना था सो हो गया, राम तो चले गये, राज्य भार तो सँभालना ही पड़ेगा। परन्तु भरत तो राम की खोज में घर से बाहर निकल पड़ता है, मार्ग में एक स्थान पर गंगा के किनारे इंगुदि वृक्ष के नीचे घास पर राम के रात बिताने और सोने के सम्बन्ध में भरत विलाप करता है-
हा हतोस्मि नृशं सोऽस्मि यत् सभार्यः कृते मम
ईदृशी राघवः शय्यायामधिशेते ह्यनाथवत्॥
अयो०
हा ! मैं मरा, मैं हत्यारा हूँ जो मेरे कारण पत्नी सहित राम अनाथ की भाँति ऐसी धरती रुप शैया पर सोते हैं।
संसार के इतिहास में क्या अन्यत्र कोई ऐसा उदाहरण मिलेगा जहाँ एक भाई की चरणपादुकायें एक चक्रवर्ती साम्राज्य पर १४ वर्ष शासन करती हैं। कवि की भाव पूर्ण उक्ति सुनिये-
राज तिलक की गेंद बनाकर खेलन लगे खिलारी।
इधर राम और उधर भरत दोनों ने ठोकर मारी ॥
शिक्षा दे रही जो हमको रामायण अति प्यारी॥