भाषा का प्रश्न

भाषा का प्रश्न


       भाषा मनुष्य ही की विशेषता है । अन्य प्राणियों की भाषा में ध्वनियों का व्याकरण नहीं है। इस दृष्टि से वे अनिरुक्त हैं । पर मनुष्य की भाषा व्याकृत है, निरक्त व स्पष्ट है । वाक् के जो ये दो रूप हैं, अनृत और सत्य, इनका व्याकरण इन्द्र करता है । जिस प्राणी में जितना अधिक ऐन्द्रबल होगा उसकी वाणी उतनी ही स्पष्ट होगी ।


       भाषा और बुद्धि का अविनाभूत सम्बन्ध है । भाषा की विद्यमानता बुद्धि के उत्कर्ष की सूचक होती है । जो प्राणी जितना बुद्धि का विकास कर पाता है वह उतनी ही मात्रा में स्पष्ट वाक् का उच्चारण करता है । पशुपक्षियों की अविकसित बुद्धि ही उन्हें अवाक बनाए हुए है। मनुष्य में बुद्धि का चरम उत्कर्ष है । इसी कारण उसे प्रजापति का नेदिष्ठ [निकटतम] माना गया है।


        बुद्धि का गुण है विवेक । स्व पर की क्षुद्र परिधियों में सीमित मन के प्रभाव से परे रहते हुए औचित्यविचार का नाम विवेक है। विवेकपूर्वक सोचें तो स्पष्ट होगा कि भाषा विचार-विनिमय का माध्यम-मात्र है। इससे अधिक उसे महत्त्व देना तथा सम्मान की कसौटी बना लेना उचित नहीं है । भारत में जो भाषा की समस्या गत कुछ वर्षों से उत्पन्न होगयी है उसे विवेक की दृष्टि से निरखें तो कुछ तथ्य अत्यन्त स्पष्ट होजाते हैं । अखिल भारतीय स्तर पर व्यवहार की भाषा ऐसी देशीय भाषा ही हो सकती है जिसे जनता का अधिकांश समझता हो । जनता की भाषा में ही जनराज्य का संचालन हो सकता है । हिन्दी ही वह भाषा है जिसे भारत की आधी से कहीं अधिक जनता जानती और समझती है ।


       जिन्हें विदेशाटन करना हो, विदेशों से अध्ययन व्यापार आदि प्रयोजनों से सम्पर्क रखना हो उनके लिए विदेशी भाषाओं का ज्ञान उपयोगी होगा । शतशः विदेशी भाषाओं में अंग्रेज़ी हमारी सुपरिचित है । पर रूस, चीन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, इटली, मिश्र, स्पेन, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के अधिकतर देशों में अंग्रेजी से काम नहीं चलता है । अतः किसी एक भाषा को अनिवार्यतः भारतीयों को पढ़ाना कहीं व्यर्थ का श्रम तो नहीं है, यह विचारणीय है।


          जिसे जो विदेशी भाषा जाननी हो उसे वह जान सके ऐसो व्यवस्था देश के विशिष्ट शिक्षणसंस्थानों में होनी चाहिए । देश के साठ से अधिक विश्वविद्यालय यदि एक एक विदेशी भाषा के शिक्षण की व्यवस्था करना चन लें तो अल्प काल में ही धरती की लगभग सभी प्रधान भाषाओं के ज्ञाता, दुभाषिए, अनुवादक हमारे देश में तैयार हो सकते हैं। ये लोग ताजे से ताज़ विदेशी ग्रन्थों का देशी भाषाओं में सद्यः अनुवाद उपलब्ध कर सकेंगे । इस प्रकार विद्याक्षेत्र में भी हम समय के साथ कदम मिलाकर चल सकेंगे तथा विदेशों से सीधे उन्हीं की भाषा में सम्पर्क भी रह सकेगा।


         भारतीय भाषाओं की प्रेरणा एवं शक्ति का स्रोत संस्कृत है । अपने अतीत से अजस्र तथा चिरनवीन सम्बन्ध बनाए रखने, भारतीय भाषाओं की समृद्धि तथा अपनी सांस्कृतिक थाती और परम्पराओं के शभ श्री को जीवित और व्यवहार्य बनाए रखने के लिये संस्कृत का अध्ययन अनिवार्य होना अभीष्ट है।


         अहिन्दीभाषी के लिए हिन्दीज्ञान की उपयोगिता स्पष्ट है । पर हिन्दीभाषी प्रायः भूल जाने के लिए ही किसी अहिन्दी भाषा को पढ़गे । फिर भी राष्ट्रीय साम्मनस्य की खातिर इतना अतिरिक्त भार उठाने के लिए कहा जाए तो हिन्दीभाषी को इसके लिए सहर्ष तेयार रहना चाहिये । भारतीय भाषाओं के अधिकाधिक अध्ययन से राष्ट्रीय प्रेम को अभिवृद्धि होगी, मातृभूमि के अन्य भागों का प्रगाढ़ परिचय मिलेगा, भावात्मक ऐक्य की ग्रन्थियां सुदृढ़ होंगी । अनेक भाषाओं के अध्ययन की प्रवृत्ति को भी इससे प्रोत्साहन मिलेगा।


        एक ही भूमिमाता की गोद में पलनेवाले, सरस्वती के स्तन का पयः पान करनेवाले मानव भाषा की खातिर, जो भावां और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यममात्र है, आपस में लड़े झगड़ें-यह कहां का विवेक है । वाक् के सदुपयोग से ही राष्ट्र और विश्व की लक्ष्मी हमारे लिये श्रेयस्करी बनेगी।


                                                           "भद्रषां लक्ष्मीनिहिताऽधि वाचि"


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