भारतीय कालविवेचना

       भारतीय कालगणना विवेचन


भारतीय संस्कृति का मूलाधार वेद है। वेद से ही हमें अपने धर्म और सदाचार का ज्ञान प्राप्त होता है। सब सत्यविद्याओं का आदि स्रोत वेद ही है। वेदों के छः अंग कहे गये हैं - १. शिक्षा, २. कल्प, ३. व्याकरण, ४. निरुक्त,५. छन्द तथा ६. ज्योतिष्। इन्हें षड् वेदांगों की संज्ञा दी गयी है। वेदों का सम्यक्ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन छः अंगों को पढ़ना अनिवार्य है।


महर्षि पाणिनि ने ज्योतिष को वेद का नेत्र कहा है-'ज्योतिषामनयनं चक्षुः'। भूतल, अन्तरिक्ष एवं भूगर्भ के प्रत्येक प्रदार्थ का त्रैकालिक यथार्थ ज्ञान जिस शास्त्र से हो वह ज्योतिषशास्त्र है।


वह ज्योतिषशास्त्र है। विश्वगुरु भारत ज्ञान के क्षेत्र में सदा से ही अग्रगण्य रहा है। ब्रह्मगुप्त, आर्यभट्ट, भास्कराचार्य आदि गणितज्ञों ने नक्षत्रों, ग्रहों आदि की गति, परिभ्रमण और परिक्रमण के मार्ग का अवलोकन कर उनके आधार पर कालगणना का सिद्धान्त निर्धारित किया तथा ज्योतिषविज्ञान के क्षेत्र में विश्व का मार्गदर्शन किया है। विश्व ने उन सिद्धान्तों को कालान्तर में परखा और सही पाया तथा स्वीकारा। यह निर्विवाद सत्य है कि आज का साधनसम्पन्न विज्ञान भी प्राचीन भारत के उस सूक्ष्मतम ज्ञान तक नहीं पहुंच पाया है। ज्योतिषीय कालगणना को वर्तमान सन्दर्भ में प्रस्तुत किया जा रहा है -


ज्योतिषीय गणनात्मक काल दो प्रकार का है - १. स्थूलकाल (मूर्तकाल) २. सूक्ष्मकाल (अमूर्तकाल)सामन्यतः स्थूल काल की गणना जगत् व्यवहार में की जाती है। प्राणादि को सूक्ष्मकाल कहा जाता है। इसकी सूक्ष्मतम इकाई परमाणु या त्रुटि है। स्थूलकाल की महत्तम ईकाई कल्प है। यहाँ संक्षेप में कालगणना का मान प्रस्तुत है -


१  परमाणु = काल की सूक्ष्मतम अवस्था।


२ परमाणु = .. १ अणु


३ अणु = १ त्रसरेणु


३ त्रिसरेणु = १ त्रुटि 


१० त्रुटि= १ परमाणु


 १० प्राण १ वेध


३ वेध १ लव


३ लव १ निमेष


१ निमेष १ पलक झपकने का समय


२ निमेष १ विपल


३ निमेष १ क्षण


५ निमेष २.५ त्रुटि


२.५ त्रुटि १ सेकण्ड


२० निमेष १० विपल = ४ सेकण्ड


५ क्षण १ काष्ठा


१५ काष्ठा १ दण्ड-१ लघु


२ दण्ड १ मुहूर्त


१५ लघु १ घटी-१ नाड़ी


१ घटी२४ मिनट


३ मुहूर्त १ प्रहर


२ घटी १ मुहूर्त = ४८ मिनट


१ प्रहर १ याम


६० घटी १ अहोरात्र (दिन-रात)


८ प्रहर १ अहोरात्र


१५ दिन-रात = १ पक्ष


२ पक्ष _ = १ मास


२ मास १ ऋतु


३ ऋतु ६ मास


६ मास = १ अयन


२ अयन = १ वर्ष


६ ऋतु = १ वर्ष


१ संवत्सर = १ अब्द


१० अब्द = १ दशाब्द


१०० अब्द = १ शताब्द


(घटी, घटिका, घड़ी, नाड़ी, नाड़िका, दण्ड-ये समानार्थ हैं।६० तत्प्रति विकला = : १ प्रति विकला


६० प्रति विकला = १ विकला   


६० विकला १ कला 


६० कला ___ = १ अंश (डिग्री)


३० अंश १ राशि


|१२ राशि १ भचक्र, भगण 


(अन्य कालगणनाक्रम)


१ त्रुटि कमलपत्र को सूई की नोक से एकबार छेदने का समय 


६० त्रुटि ६० रेणु


१ लव ६० लव


१ लीक्षक (१/१५ सेकण्ड)


६० लीक्षक १ प्राण (४ सेकण्ड)


१ प्राण १० विपक (४ सेकण्ड)


६० विपक १ पल ६० पल


१ घटी (२४ मिनट)


१ नाड़ी (२४ मिनट)


१ नाड़ी १ दण्ड (२४ मिनट)


६० घटी १ दिन-रात (२४ घण्टे)


३० दिन-रात  = १ मास


१२ मास =१ वर्ष


                    युगप्रमाण


युगप्रमाण एक सृष्टि (कल्प)= १४ मन्वन्तर


१ मन्वन्तर = ७१ चतुर्युग


१ चतुर्युग सतयुग (१७,२८,००० वर्षत्रेतायुग (१२,९६,००० वर्षद्वापरयुग (८,६४,००० वर्षकलियुग (४,३२,००० वर्षकलयोग = ४३,२०,०००


७१ चतुर्युग - ३०,६७,२०,००० वर्ष । (४३,२०,०००%७१) |


१४ मन्वन्तर = ४,२९,४०,८०,००० वर्ष र (३०,६७,२०,०००%१४)


र (३०,६७,२०,०००%१४) कलियुग से दुगुना द्वापर, तिगुना त्रेतायुग और चौगुना सतयुग होता है। एक चतुर्युगी कलियुग से दस गुनी होती हैमन्वन्तरों के नाम____ मन्वन्तर १४ हैं- (१) स्वायम्भुव, (२) स्वारोचिष३) औत्तमि, (४) तामस, (५) रैवत, (६) चाक्षुष(७) वैवस्वत, (८) सावर्णि, (९) दक्षसावर्णि, (१०) ब्रह्मसावर्णि, (११) धर्मसावर्णि, (१२) रुद्रसावर्णि, (१३) रोच्यदेवसावर्णि (१४) इन्द्रसावर्णि। (१३) रोच्यदेवसावर्णि (१४) इन्द्रसावर्णि।


                                        वर्तमान में विश्वसृष्टि


कुल सृष्टि की आयु = ४,२९,४०,८०,००० वर्ष


सृष्टि की वर्तमान आयु६ मन्वन्तर =(४३,२०,०००%६) १,८४,०३,२०,००० वर्ष


२७ चतुर्युग =(४३,२०,०००%२७) +११६६४०००० वर्ष


२८ वें महायुग के तीन युग= +३८८८००० वर्ष


सतयुग (१७,२८,००० वर्ष)


त्रेतायुग (१२,९६,००० वर्ष)


द्वापरयुग (८,६४,००० वर्ष)


वर्तमान कलियुग के बीते वर्ष = +५११९ वर्ष


सृष्टि की वर्तमान आयु = १,९६,०८,५३,११९ वर्ष


इस प्रकार वर्तमान विक्रम सम्वत् (२०७५) में सृष्टि की आयु कुल आयु से घटाने पर सृष्टि की आयु २,३३,३२,२६,८८१ अभी शेष रहती है। यह वैवस्वत् नामक सातवाँ मन्वन्तर वर्तमान में चल रहा है। प्रथम छ: मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं। वर्तमान सातवें मन्वन्तर के २७ वाँ महायुग चल रहा है, जिसके प्रथम तीन युग (सत्ययुग, त्रेता और द्वापरयुग) बीत चुके हैं और चौथा युग'कलियुग' चल रहा है। अभी कलियुग का प्रथम चरण है।


 संवत्सर ६० होते हैं। एक के बाद दूसरा संवत्सर आता है। इन संवत्सरों के नाम एवं क्रम निश्चित हैं। ६० संवत्सरों के नाम तथा क्रम इस प्रकार हैं - १. प्रभव, २. विभव, ३. शुक्ल, ४. प्रमोद, ५. प्रजापति, ६. अंगिरा, ७. श्रीमुख, ८. भाव, ९. युवा१०. धाता, ११. ईश्वर, १२. बहुधान्य, १३. प्रमाथी, १४. विक्रम, १५. विषु, १६. चित्रभानु, १७. स्वभानु, १८. तारण, १९. पार्थिव, (२०. व्यय, २१. सर्वजित्, २२. सर्वधारी, २३. विरोधी, |२४. विकृति, २५. खर, २६ नन्दन, २७ विजय, २८. जय, २९. मन्मथ, ३०. दुर्मुख, ३१. हेमलम्ब, ३२. विलम्ब, ३३. विकारी, ३४. शर्वरी, ३५. प्लव, ३६. शुभकृत, ३७. शोभन, ३८. क्रोधी, ३९. विश्वावसु, ४०. पराभव. |४१. प्लवग, ४२. कीलक, ४३. सौम्य, ४४. साधारण. ४५. विरोधकृत्, ४६. परिधावी, ४७. प्रमादी, ४८. आनन्द, |४९. राक्षस, ५०. नल, ५१. पिंगल, ५२. काल, ५३. सिद्धार्थ, ५४. रोद्रि, ५५. दुर्मति, ५६. दुंदुभि, ५७. रुधिरोद्गारी, ५८. रक्ताक्ष,५९. क्रोधन तथा ६०. अक्षय।


अयन -


___अयन दो होते हैंउत्तरायण तथा दक्षिणायनये छ:-छः मासों के होते हैं। पृथ्वी की धुरी तिरछी होने के कारण उसका वार्षिक गति के फलस्वरूप सूर्य दिनांक २२ जून को कर्करेखा पर दृष्टिगोचर होता है तथा २१ दिसम्बर को मकररेखाइस अवधि को दक्षिणायन कहते हैं। अर्थात् कर्करेखा से दक्षिणायन की ओर (मकररेखा तक) सूर्य का प्रस्थान दक्षिणायन कहलाता है। दिनांक २२ दिसम्बर (सूर्य-उत्तरायण) से सूर्य उत्तर में गमन करता है तथा २१ जून (सूर्य-दक्षिणायन) को ककरेखा पर पुनः दृष्टिगोचर होने लगता है। यह छः मास का समय उत्तरायण कहलाता है। विषुवत् रेखा से कर्क रेखा तक सूर्य के गमन एवं कर्म रेखा से विषुवत् रेखा पर लौटने के काल को उत्तरगोल तथा विषुवत् रेखा से मकर रेखा तक जाने एवं मकर रेखा से वापस विषुवत् रेखा पर आने तक के काल को दक्षिणगोल कहते हैं।


ऋतुएँ -


के म एक वर्ष में छ: ऋतुएँ होती हैं। प्रत्येक ऋतु दो-दो मास की होती है - १. वसन्तऋतु - चैत्र, वैशाख। २. ग्रीष्मऋतु - ज्येष्ठ, आषाढ़। ३. वर्षाऋतु - श्रावण, भाद्रपद ४. शरदऋतु - आश्विन, कार्तिक । ५. शिशिरऋतु - मार्गशीर्ष, पौष। ६. हेमन्तऋतु - माघ, फाल्गुन। महीना (मास) - र - मास १२ हैं। ये एक के बाद एक क्रम से आते हैं। इनके नाम एवं क्रम निश्चित हैंएक वर्ष या सम्वत् में १२ मास होते हैं। इनके नाम हैं - १. चैत्र (मधु), २. वैशाख(माधव), ३. ज्येष्ठ (शुक्र),४. आषाढ़ (शुचि),५. श्रावण) (नभस्), ६. भाद्रपद (नभस्य), ७. आश्विन (ईष), ८. कार्तिक (ऊर्ज), ९. मार्गशीर्ष (सहस्), १०. पौष (सहस्य), ११. माघ (तपस्) तथा १२. फाल्गुन (तपस्य)। प्रत्येक मास में ३० तिथि होती हैं। किसी-किसी मास में तिथि-क्षय तथा तिथि-वृद्धि भी होती है। कभी-कभी मास-वृद्धि तथा मास-क्षय भी होता है।


भारतीय संस्कृति में सूर्य एवं चन्द्र दोनों को समान महत्त्व दिया गया है। महिनाओं के रूप में जहाँ चान्द्रमास को प्रधानता दी गयी, वहाँ वर्ष के रूप में सौरवर्ष को स्वीकार किया गया है। सौरमास (एक वर्ष) का मान ३६५ दिन ६ घण्टे ९ मिनट १०.८ सेकेण्ड के लगभग तथा चान्द्रमास (एक वर्ष) ३५४ दिन के लगभग होता है। यदि इन दोनों में एकरूपता नहीं लायी जाय तो हमारे त्योहार भी मोहर्रम की भाँति कभी ग्रीष्मऋतु में तथा कभी शिशिरऋतु में आयेंगे, ऐसा न हो, इसलिये निरयन सौरवर्ष एव चान्द्रवर्ष के लगभग ११ दिन के अन्तर को मिटाने के लिये अधिकमास या मलमास की व्यवस्था की गयी। ३२ मास १६ दिन ४ घटी उपरान्त अधिकमास पुनः आता है। अधिकमास ज्ञात करने हेत वर्तमान शक-सम्वत् में से ९२५ घटायें। शेष में १९ का भाग दें। यदि शेष ३ बचे तो चैत्र, ११ बचे तो वैशाख, ८ बचे बचे तो ज्येष्ठ, १६ बचे तो आषाढ़, ५ बचे तो श्रावण, १३ बचे तो भाद्रपद, २ शेष रहे तो आश्विन मास की वृद्धि होगी। अन्य शेष रहे तो अधिकमास नहीं होगा।


अधिकमास -


या जिस चान्द्रमास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती, उसे अधिकमास कहते हैंजिस राशि पर सूर्य जाता है, वह उस राशि की संक्रान्ति कहलाती है। अर्थात् जब दो पक्षों में लगातार सूर्य-संक्रान्ति नहीं होती, तब वह अधिकमास की संज्ञा में आता है। इसे मलमास और पुरुषोत्तममास भी कहते।। हर तीसरे वर्ष चान्द्र एवं सौर वर्षों के समयान्तर का सामंजस्य करने के लिये अधिमास करने का विधान है। माघ, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन ये नौ मास अधिकमास होते हैं।


क्षयमास -


जिस चान्द्रमास के दोनों पक्ष में सर्यसंक्रान्ति होतीहै. उसे क्षयमास कहते हैं। क्षयमास केवल कार्तिक, मार्गशीर्ष |और पौष - इन तीन महीनों में से किसी एक महीने में पड़ता है, वर्ष के अन्य मासों में नहीं। जिस वर्ष क्षयमास होता है, उस एक वर्ष के भीतर दो अधिकमास होते हैं


पक्ष -


चान्द्रमास के शुक्ल एवं कृष्ण दो पक्ष होते हैं। बढ़ता चन्द्रमा अर्थात् अमावस्या से पूर्णिमा तक की १५ तिथियों का शुक्लपक्ष और घटता चन्द्रमा अर्थात् पूर्णिमा से अमावस्या तक १५ तिथियों का कृष्ण पक्ष होता है।


तिथि -


चन्द्रमा की एक कला को तिथि कहते हैं। तिथियाँ |१ से ३० तक एक मास में ३० होती हैं। ये पक्षों में विभाजित हैं। प्रत्येक पक्ष में १५-१५ तिथियाँ होती हैं। इनकी क्रम संख्या ही इनके नाम हैं। ये हैं - १. प्रतिपदा, २. द्वितीय, ३. तृतीया, |४. चतुर्थी, ५. पंचमी, ६. षष्ठी, ७. सप्तमी, ८. अष्टमी, ९. नवमी, १०. दशमी, ११. एकादशी, १२. द्वादशी, |१३. त्रयोदशी, १४. चतुर्दशी तथा १५. पूर्णिमा और ३०. अमावस्या। शुक्लपक्ष की अन्तिम तिथि १५ वीं पूर्णमासी या पूर्णिमा है तथा कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि ३० वीं अमावस्या है | 


 सूर्य और चन्द्र के बीच की १२ डिग्री दूरी को एक तिथि कहा जाता हैअमावस्या को सूर्य और चन्द्र एक राशि के समान अंश पर होते हैं। ०° से १२° तक दूरी प्रतिपदा, |१२ से २४ से ३६° तक दूरी होने पर तृतीया होती है। इसी प्रकार पूर्णिमा को सूर्य परस्पर १८०° से तक (अन्तर) शुक्लपक्ष तथा १८०° (उलटे) ०° तक कृष्णपक्ष होता है। १८०° से १६८° तक कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, में १६८° से १५६° तक द्वितीया, दूसरे रूप में इस क्रम की प्रस्तुति इस प्रकार भी हो सकती है। चूंकि क्रान्तिवृत्त में कुल ३६०° ही हो सकते हैं तथा पूर्णिमा को चन्द्र सूर्य से १८०° पर होता है। अतः १८० से १९२° तक कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, १९२° से २०४° तक द्वितीया होगी। इस प्रकार १८०° से ३६० तक कृष्णपक्ष की क्रमशः प्रतिपदा से अमावस्या तक की तिथियाँ होंगी।


संक्षेप में हम इस प्रकार से समझें कि- चन्द्रमा की गति सूर्य से प्रायः तेरह गुना अधिक है। जब इन दोनों कीगति में १२ अंश का अन्तर आ जाता है. तब एक तिथि बनती है। इस प्रकार ३६० अंशवाले 'भचक्र' (आकाश-मण्डल) में ३६०: १२-३० तिथियों का निर्माण होता है।यह नैसर्गिक क्रम निरन्तर चल रहा है


 


 चन्द्र की दैनिक औसत गति ८०० कला अर्थात् १३.५° मानी गयी है, जिसमें हास और वृद्धि दृष्टिगोचर होती है, क्योंकि सूर्य के चारों ओर घूमती हुई पृथ्वी को समान एवंविपरीत दिशा में चलकर चन्द्र पार करता है। यही कारण हैकि तिथिमान भी घटता-बढ़ता रहता है


तिथिक्षय-वृद्धि


एक तिथि का मान १२ अंश होता है, कम न अधिकसर्योदय के साथ ही तिथि नाम एवं संख्या बदल जाती है। यदि किसी तिथि का अंशादि मान आगामी सर्योदयकाल से पर्व ही समाप्त हो रहा होता है तो वह तिथिसमाप्त होकर आने वाली तिथि प्रारम्भ मानी जायगी और सूर्योदयकाल पर जो तिथि वर्तमान है, वही तिथि उस दिन आगे रहेगीयदि तिथि का अंशादि मान आगामी सूर्योदयकाल के उपरान्त तक चाहे थोड़े ही काल के लिये सही रहता है तो वह तिथि-वृद्धि मानी जायगीयदि दो सूर्योदय काल के भीतर दो तिथियाँ आ जाती हैं तो दूसरी तिथि का क्षय माना जायगा और उस क्षयतिथि की क्रमसंख्या पंचांग में नहीं लिखी जाती तथा वह तिथि अंक छोड़ देते हैं। आशय यह हैकि सूर्योदयकाल तक जिस भी तिथि का अंशादि मान वर्तमान रहता है। चाहे कुछ मिनटों के लिये ही सही, वही तिथिवर्तमान में मानी जाती है। तिथि-क्षय-वृद्धि का आधार सूर्योदयकाल है।


वार (दिन) -


पृथ्वी और सूर्य से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले ७ ग्रहों की कक्षानुसार ७ वार निश्चित किये गये, जो सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित हैं। वार शब्द (वासर) दिन का ही संक्षिप्त रुप है। १. रविवार या आदित्यवार, २. चन्द्रवार या सोमवार, ३. मंगलवार या भौमवार, ४. बुधवार, ५. गुरुवार या बृहस्पतिवार, ६. शुक्रवार तथा ७. शनिवार । इन वारों के नाम ग्रहों के प्रथम होरा (घण्टा) के आधार पर रखे गये हैं। ग्रहों की स्थिति आकाश में पृथ्वी से ऊपर इस प्रकार है - सबसे निकट चन्द्रमा, उससे ऊपर बुध, उससे उससे ऊपर शुक्र) ऊपर सर्य, सूर्य से ऊपर मंगल, मंगल से ऊपर गरु और सबसे ऊपर शनि। 'अहोरात्र' शब्द में प्रथम तथा अन्तिम अक्षर को हटाकर जो शब्द बनता है वह होरा हैएक दिन-रात में २४ होरा होते हैं। होरा का मान १ घण्टे के बराबर है। सृष्टि-रचना के समय सर्वप्रथम सूर्य का प्रथम होरा ||घण्टा) उदय हुआ, अतः प्रथम दिन का नाम 'रवि होरा' के आधार पर 'रविवार' रखा गया। २४ होराओं में सातों ग्रहों के २४:६-३, (तीन) फेरों के बाद, चौथे फेरे में पहला होरा चन्द्रमा का पड़ा तो अगले वार का नाम चन्द्रमा पर चन्द्रवार अर्थात् सोमवार रखा गयाइसके बाद क्रमश: मंगल, बुध, गरु, शक्र और अन्त में शनि का प्रथम होरा आने पर इन ग्रहों के नाम पर शेष वारों के नाम रखे गये। यह नामकरण सर्वत्र प्रचलित है। इनका क्रम नहीं बदलता।


ईसवी सन्, विक्रम सम्वत्, शक सम्वत्, हिजरी सन् आदि में सामंजस्य


 ईसवी सन् + ५७ = विक्रम सम्वत्ई


सवी सन् (-) ७८ = शक सम्वत्


शक सम्वत् + ७८ ईसवी सन्


विक्रम सम्वत् (-)५७ = ईसवी सन्


विक्रम सम्वत् (-) १३५ शक सम्वत्


ईसवी सन् (-) ५८३ = हिजरी सन्


हिजरी सन् (-) १० = फसली सन्


फसली सन् (-) १ . = बँगला सन्


शक सम्वत् (-) ५०० = हिजरी सन्


प्रचलित ईसवी सन्, सम्वत्सर आदि ईसवी सन् -


ईसा मसीह के जन्मदिन से माना जाता है। जनवरीमाह से प्रारम्भ होकर दिसम्बर माह तक १२ माह का हो ।


विक्रम सम्वत् -


यह सम्वत् उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य ने चलाया था। यह प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है। इसमें दिन, वार और तिथि का प्रारम्भ सूर्योदय से माना जाता है। शक सम्वत्/राष्ट्रिय सम्वत् -


यह सम्वत् शालिवाहन नामक हैं। नृपति ने चलाया थाइसे अब राष्ट्रिय सम्वत् की मान्यता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार कनिष्क प्रथम को इस सम्वत् का प्रवतक माना जाता है। भारत में केन्द्र सरकार के निर्णय के अनुसार २२ मार्च १९५७ से शक सम्वत् को 'राष्ट्रियसम्वत्' घोषित कर रखा है। यह प्रतिवर्ष २२ मार्च से प्रारम्भ होता है।


बाँगला सम्वत् -


बाँगला सम्वत् मेष की संक्रान्ति से प्रारम्भ होता है। मीन की संक्रान्ति से बंगाली चैत्रमास तथा मेष की संक्रान्ति से वैशाख मास प्रारम्भ होता है। वर्षारम्भ संक्रान्ति के दूसरे दिन से पहली तारीख गिनते हैं| 


इस प्रकार से यह निर्विवाद सत्य है कि भारतीय कालगणना विश्व की प्राचीनतम, सूक्ष्मतम, शुद्धतम तथा विश्वनीय गणना है। यह हमारी संस्कृति की अनुपम देन है। हम सबका यह कर्तव्य है कि हम भारतीय काल-गणना का सही ज्ञान अपनी भावी पीढ़ी को करायें, ताकि वे पश्चिम के अन्धभक्त न बनकर भारतीय संस्कृति एवं ज्ञान की महानता को स्वीकार करते हुए उसके संरक्षण एवं संवर्द्धन का सतत प्रयास करते रहें(स्रोत : सूर्यसिद्धान्त) 


                                                                                                   - आचार्य


                                                                                गुरुकुल पौन्धा, देहरादून


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