बहुजन हिताय

बहुजन हिताय


          भगवान् बुद्ध ऐसी साधना के पक्षधर थे जिससे प्रात्म- कल्याण के साथ-साथ सबका, प्राणिमात्र का कल्याण हो। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय -उनकी साधनापद्धति का लक्ष्य था। मनुष्य का यही वह सर्वोच्च धर्म है जिसकी शरण में जाने के लिए उन्होंने प्रेरणा दी थी। उनकी दृष्टि में जन्म लेने वाले (जन) प्रत्येक प्राणी का हित करना सच्चे साधक का कर्तव्य-कर्म है । उन्होंने यह भी अनुभव कर लिया था कि यह काम एक आदमी के वश का नहीं है। इसलिए उन्होंने सब प्राणियों को कल्याण कामना करने वाले लोगों का संघ बनाया और संघ की शरण में जाने की बात कही। यदि संसार के एक चौथाई लोग भी, मिलकर, प्राणिमात्र के कल्याण की बात सोचें, कल्याण-कार्य करने का संकल्प लें और उसकी पूर्ति के लिए जुट जाए तो दुःख-नाश की दिशा में बहुत कुछ आगे बढ़ा जा सकता है ।


         बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय-की घोषणा केवल घोषणा नहीं थी, माज के अनेक नारों की तरह का नारा मात्र नहीं था, वरन् मानवता का श्रेष्ठ जीवन की ओर एक सुनिश्चित, दृढ़ क़दम था । इसी लिए लोगों के लिए यह प्राकर्षण का विषय बन गया। राजा से लेकर रंक तक, सभी, चल पड़े बुद्ध के पीछे-पीछे । धर्म और सघ की शरण में जाना जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बन गया।


         भगवान बुद्ध के समय भारत के सभी जनपदों में राज्य-व्यवस्था का बोल-बाला था। मगध, काशी, के राज्यों-साम्राज्यों के साथ गणराज्यों की अंग मादि के नोंक-झोंक चलती रहती थी। वैशाली का गणराज्य तो मण-व्यवस्था का प्रादर्श रूप था। भगवान बुद्ध ने वैशाली ग्रादर्श रूप था। भगवान बुद्ध ने वैशाली की  उपमा इन्द्र की धर्मसभा से दी है।


        गणराज्यों को नष्ट करने का षड्यंत्र चल रहा था। उनकी आन्तरिक जीवन-पद्धति में वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षा के कारण कई दोष भी आ गये थे। भगवान् बुद्ध ने मानवता को एक ऐसे गणराज्य (संघ) की कल्पना दी जिसका विस्तार भारत में ही नहीं, सारे भूमण्डल पर हो सकता है। धर्म की शक्ति उसका आधार हो, प्राणिमात्र का हित उसका लक्ष्य हो । सब मिल कर, एक जुट होकर इस लक्ष्य को सिद्ध करें।


         यह लक्ष्य पूरा भी हुया । बौद्ध भिक्षुओं ने भूमण्डल का कोना-कोना छान मारा। नदियों और समुद्रों को, पर्वतों और गहन कान्तारों को पार करते हुए वे सर्वत्र छा गए । घर-घर में 'बुद्ध शरणं गच्छामि' की संकल्पभरी वाणी गूजने लगी। बड़े बड़े सम्राट् भिक्षों की चरणधूलि लेने के लिए लालायित रहने लगे । सम्राट् स्वयं भिक्षु बनने लगे। अपने पुत्र और पुत्रियों को भिक्षु होते देख कर उन्हें अपने ऊपर गर्व होने लगा। सारे भमण्डल पर धर्म का साम्राज्य स्थापित करने की ऐसी उत्कंठा इसके पहले कभी नहीं जागी थी। सम्राटों के सिंहासन झुक गये भिक्षुत्रों के सामने ।


         अपने लिए तो पशु भी जी लेते हैं। दसरों के लिए सब कुछ त्याग देना, साँस-साँस में परहित की कामना करना, दुःख का विनाश करने के लिए सामहिक रूप से जुट जाना-जीवन को सार्थक करने का उपाय है। ऐसा तभी हो सकता है जब व्यक्ति प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव अपनाये । ऐसा मैत्री भाव भगवान बद्ध की शिक्षा का आधारभूत विचार है और भावना का विका विकास है जिसमें सब दिशानों को  मित्र बनाने की कामना  की गई है


                                                                                                                                            - सर्वा आशा मम मित्र भवन्ति 


 


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।