बहादुर शाह

बहादुर शाह


 (क्रान्तिकारी मन्मथनाथ गुप्त द्वारा लिखित)


           यद्यपि अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह का राज्य लाल किले के बाहर सिर्फ नाम के वास्ते ही रह गया था, पर विद्रोहियों ने बादशाह को एक प्रतीक के रूप में अपना लिया था। दिल्ली में ५१३४ दिन तक विद्रोहियों का राज्य रहा। बादशाह बहादुरशाह भी अन्त में गिरफ्तार हो गए। इसके बाद एक घटना बहुत ही अद्भुत है और उससे एक प्रकार से यह सूचित होता है कि अंग्रेजों ने विद्रोहियों को किस बेदर्दी से दबायाबहादुरशाह के दो बेटे दबायामिर्जा मुगल और मिर्जा असगर सुल्तान तथा उनके पोते मिर्जा अबुबकर हुमायूं गिरफ्तार कर लिए गए। मेजर हडसन अंग्रेजों की तरफ से सैनिक शासक था। उसने शाहजादों को रथ पर सवार कराया। जब शहर सिर्फ एक मील रहा, तो मेजर हडसन एकाएक उतरा। उसने अचानक अपने सिपाहियों के हाथों से एक बन्दूक ली और तीनों शाहजादों को वहीं पर जान से मार दिया। इसके बाद उनके सिर काट कर बादशाह के सामने पेश किए गए। बूढा बादशाह क्या कहता। उसने असीम धैर्य के साथ कहा-'अलहमदुलिल्लाह! तैमूर की औलाद ऐसे ही सुर्खरू होकर बाप के सामने आया करती थी।


बदला लेने का भूत अंग्रेजों पर कहां तक सवार था उसकी एक बानगी और देखिए। इन तीनों शाहजादों के सिर दिल्ली के खूनी दरवाजे क सामने टाँगे गए और कोतवाली के सामने उनके धड़ टांगे गएकिवदन्ती तो यहां तक है कि जब हडसन ने शाहजादों को मारा,तो उसने चुल्लू भर-भर कर उनका खून पिया और कहा-अगर मैं इनका खून नहीं पीता तो मैं पागल हो जाता। इस प्रकार भारत में तैमूर के राजवंश का अन्त हुआ। 


        यह तो रही मेजर हडसन के अत्याचारों की कहानी। पर उसकी देखा-देखी साधारण अंग्रेजों ने भी दिल्ली निवासियों पर कम अत्याचार नहीं किए। दिल्ली में खोज की गई कि कौन-कौन लोग घायल हुए हैं। जो भी घायल मिला, उसका चेहरा पहले संगीन से बार-बार रौंदा गया, फिर उसे धीमी-धीमी आंच में जलाया गया। कई बार मुसलमानों को मारने से पहले सूअर की खाल में सी दिया जाता था। लोहे के गरम-गरम तवे से उनके बदन दागे गए और लोगों को पकड़-पकड़ कर, जबर्दस्ती उनसे गिरजाघरों में झाडू लगवाई गई। सम्राट् बहादुरशाह और उनकी बेगम जीनत महल और जवां बख्त को रंगून भेज दिया गया। वहां वे तब तक कैद रखे गए जब तक कि वे मरे नहीं।


       बाद में हिन्दुस्तान के इस अन्तिम बादशाह की मृत्यु वहीं रंगून में हुईउस जगह स्मारक के रूप में संगमरमर का एक टुकड़ा लगा है जिस पर अंकित हैं ये शब्द-'बहादुरशाह एक्स किंग आव डेलही डाइड एट रंगून, नवम्बर सेविन्थ १८६२ एंड बरीड नियर दिस स्पाट' अर्थात् दिल्ली के भूतपूर्व बादशाह बहादुर ७ नवम्बर १८६२ को रंगून में मरे और इस स्थान के समीप दफनाए गए।


        मगर इन सारे अत्याचारों के कारण कम्पनी का शासन समाप्त हो गया और ब्रिटिश संसद ने अपने हाथों में भारत का शासन ले लिया। महारानी विक्टोरिया की ओर से एक घोषणा की गई जिसमें यह कहा गया कि “धर्म तथा जाति का ख्याल न रखकर सब को शासन में नौकरी दी जाएगी। कारीगरी की उन्नति के लिए सब कुछ किया जाएगा और ऐसे सब काम किए जाएंगे जिनसे आम जनता को फायदे हों।"


       पर इतना बता दिया जाए कि इस घोषणा के बावजूद कुछ भी नहीं हुआ। वर्षों तक विद्रोहियों को ढूंढ-ढूंढ कर उनका दमन किया जाता रहा। ऊंची नौकरियां भारतीयों को नहीं दी गई। हां, एक बात यह हुई कि भारत में जल्दी से रेल चलाना शुरू कर दिया गया। ऐसा भारत के लाभ के लिए नहीं किया गया, न दुर्भिक्ष को रोकने के लिए किया गया, बल्कि इसलिए कि कहीं पर विद्रोह हो तो फौज जल्दी से वहीं भेजी जा सके।


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