बाबा माधवदास की वेदना और ईसाई मिशनरियां

बाबा माधवदास की वेदना और ईसाई मिशनरियां...
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कई वर्ष पहले दूर दक्षिण भारत से बाबा माधवदास नामक एक संन्यासी दिल्ली में 'वॉयस ऑफ इंडिया' प्रकाशन के कार्यालय पहुँचे। उन्होंने सीताराम गोयल की कोई पुस्तक पढ़ी थी, जिसके बाद उन्हें खोजते-खोजते वह आए थे। मिलते ही उन्होंने सीताराम जी के सामने एक छोटी सी पुस्तिका रख दी। यह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रवीकान्त शुक्ल की सरकार द्वारा 1956 में बनी सात सदस्यीय जस्टिस नियोगी समिति की रिपोर्ट का एक सार-संक्षेप था। यह समिति जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बाद भी बनाई थी। यह संक्षेप माधवदास ने स्वयं तैयार किया, किसी तरह माँग-मूँग कर उसे छपाया और तब से देश भर में विभिन्न महत्वपूर्ण, निर्णयकर्ता लोगों तक उसे पहुँचाने, और उन्हें जगाने का अथक प्रयास कर रहे थे। किंतु अब वह मानो हार चुके थे और सीताराम जी तक इस आस में पहुँचे थे कि वह इस कार्य को बढ़ाने का कोई उपाय करेंगे।


माधवदास ने देश के विभिन्न भागों में घूम-घूम कर ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ स्वयं ध्यान से देखी थीं। उन्हें यह देख बड़ी वेदना होती थी कि मिशनरी लोग हिन्दू धर्म को लांछित कर, भोले-भोले लोगों को छल से जाल में फँसा कर, दबाव देकर, भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर आदि विधियों से ईसाइयत में धर्मांतरित करते थे। सबसे बड़ा दुःख यह था कि हिन्दू समाज के अग्रगण्य लोग, नेता, प्रशासक, लेखक इसे देख कर भी अनदेखा करते थे। यह भी माधवदास ने स्वयं अनुभव किया। वर्षों यह सब देख-सुन कर अब वे सीताराम जी के पास पहुँचे थे। सीताराम जी ने उन्हें निराश नहीं किया। उन्होंने न केवल जस्टिस नियोगी समिति रिपोर्ट को पुनः प्रकाशित किया, वरन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों की ऐतिहासिक क्रम में समीक्षा करते हुए 'छद्म-पंथनिरपेक्षता, ईसाई मिशन और हिन्दू प्रतिरोध' नामक एक मूल्यवान पुस्तिका भी लिखी। पर ऐसा लगता है कि हिन्दू उच्च वर्ग की की काहिली और अज्ञान पर शायद ही कुछ असर पड़ा हो।


जब 'तहलका' ने साप्ताहिक पत्रिका आरंभ की तो अपना प्रवेशांक (7 फरवरी 2004) भारत में ईसाई विस्तार के अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र पर केंद्रित किया। इस के लिए अमेरिकी सरकार तथा अनेक विदेशी चर्च संगठनों द्वारा भारी अनुदान, अनेक मिशनरी संगठनों के प्रतिनिधियों से बात-चीत, उनके दस्तावेज, मिशनरियों द्वारा भारत के चप्पे-चप्पे का सर्वेक्षण और स्थानीय विशेषताओं का उपयोग कर लोगों का धर्मांतरण कराने के कार्यक्रम आदि संबंधी भरपूर खोज-बीन और प्रमाण 'तहलका' ने जुटा कर प्रस्तुत किया था।
 किंतु उस पर भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों, प्रशासकों की क्या प्रतिक्रिया रही? कुछ नहीं, एक अभेद्य मौन! मानो उन्होंने कुछ न सुना हो। जबकि मिशनरी संगठनों में उस प्रकाशन से भारी चिंता और बेचैनी फैली (क्योंकि वे उस पत्रिका को संघ-परिवार का दुष्प्रचार बताकर नहीं बच सकते थे!)। उन्होंने तरह-तरह के बयान देकर अपना बचाव करने की कोशिश की। मगर हिन्दू समाज के प्रतिनिधि निर्विकार बने रहे! हमारे जिन बुद्धिजीवियों, अखबारों, समाचार-चैनलों ने उसी तहलका द्वारा कुछ ही पहले रक्षा मंत्रालय सौदों में रिश्वतखोरी की संभावना का पर्दाफाश करने पर खूब उत्साह दिखाया था, और रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस समेत सबके इस्तीफे की माँग की थी। वही लोग उसी अखबार के इस पर्दाफाश पर एकदम गुम-सुम रहे। मानो इस में कोई विशेष बात ही न हो।


ठीक यही पचपन वर्ष पहले नियोगी समिति की रिपोर्ट आने पर भी हुआ था। जहाँ मिशनरी संगठनों में खलबली मच गई थी, वहीं हमारे नेता, बुद्धिजीवी, अफसर, न्यायविद सब ठस बने रहे। अंततः संसद में सरकार ने यह कह कर कि समिति की अनुशंसाएं संविधान में दिए मौलिक अधिकारों से मेल नहीं खाती, मामले को रफा-दफा कर दिया। कृपया ध्यान दें – किसी ने यह नहीं कहा कि समिति का आकलन, अन्वेषण, तथ्य और साक्ष्य त्रुटिपूर्ण है। बल्कि सबने एक मौन धारण कर उसे चुप-चाप धूल खाने छोड़ दिया। (उसके तैंतालीस वर्ष बाद, 1999 में, यही जस्टिस वधवा कमीशन रिपोर्ट के साथ भी हुआ, जिसने उड़ीसा में ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस की हत्या के संबंध में विस्तृत जाँच की थी)। हिन्दू सत्ताधारियों व बौद्धिक वर्ग की इस भीरू भंगिमा को देख कर सहमे हुए मिशनरी संगठनों का साहस तुरत स्वभाविक रूप से बढ़ गया। सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में उनकी गतिविधियाँ इतनी अशांतिकारक हो गईं कि उड़ीसा व मध्य प्रदेश की सरकारों को क्रमशः 1967 और 1968 में धूर्तता और प्रपंच द्वारा धर्मांतरण कार्यों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने पड़े। उस से माधवदास जैसे दुखियारों को कुछ प्रसन्नता मिली। मगर वह क्षणिक साबित हुई क्योंकि उन कानूनों को लागू कराने में किसी ने रुचि नहीं ली। जिन स्थानों में मिशनरी सक्रिय थे, वहाँ इन कानूनों को जानने और उपयोग करने वाले नगण्य थे। जबकि शहरी क्षेत्रों में जो हिन्दू यह सब समझने वाले और समर्थ थे, उन्होंने रुचि नहीं दिखाई कि इन कानूनों के प्रति लोगों को जगाकर चर्च के विस्तारवादी आक्रमण को रोकें।


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में ईसाई मिशनरी संगठनों को भय था कि अब उन का कारोबार बाधित होगा। आखिर स्वयं गाँधीजी जैसे सर्वोच्च नेता ने खुली घोषणा की थी कि कानून बनाने का अधिकार मिलने पर वह सारा धर्मांतरण बंद करवा देंगे। किंतु मिशनरियों की खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि उन की दुकान बंद कराने के बदले, भारतीय संविधान में धर्मांतरण कराने समेत धर्म प्रचार को 'मौलिक अधिकार' के रूप में उच्च स्थान मिल गया है! इसमें किसी संदेह को स्वयं प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने दूर कर दिया था। नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखे अपने पत्र (17 अक्तूबर 1952) में स्पष्ट कर दिया, “वी परमिट, बाई अवर कंस्टीच्यूशन, नॉट ओनली फ्रीडम ऑफ कांशेंस एंड बिलीफ बट आलसो प्रोजेलाइटिज्म”। और यह प्रोजेलाइटिज्म मुख्यतः चर्च-मिशनरी करते हैं और किन हथकंडों से करते है, यह उस समय हमारा प्रत्येक नेता जानता था!


जब स्वतंत्र भारत का संविधान बन रहा था, तो संविधान सभा में इस पर हुई पूरी बहस चकित करने वाली है। कि कैसे हिंदू समाज खुली आँखों जीती मक्खी निगलता है। एक ही भूल बार-बार करता, दुहराता है, चोट खाता है, फिर भी कुछ नहीं सीखता! धर्मांतरण कराने समेत 'धर्म-प्रचार' को मौलिक अधिकार बनाने का घातक निर्णय मात्र एक-दो सदस्यों की जिद पर कर दिया गया। इसके बावजूद कि धर्म-प्रचार के नाम पर इस्लामी और ईसाई मिशनरियों द्वारा जुल्म, धोखा-धड़ी, रक्तपात और अशांति के इतिहास से हमारे संविधान निर्माता पूर्ण परिचित थे। इसीलिए संविदान सभा में पुरुषोत्तमदास टंडन, तजामुल हुसैन, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, हुसैन इमाम, जैसे सभी सदस्य 'धर्म-प्रचार' के अधिकार को मौलिक अधिकार में जोड़ना अनुचित मानते थे। फिर भी केवल “ईसाई मित्रों का ख्याल करते हुए” उसे स्वीकार कर बैठे! यह उस हिन्दू भोलेपन का ही पुनः अनन्य उदाहरण था जो 'पर-धर्म' को गंभीरता-पूर्वक न जानने-समझने के कारण इतिहास में असंख्य बार ऐसी भूलें करता रहा है।


इसीलिए स्वतंत्र भारत में मिशनरी कार्य-विस्तार की समीक्षा करते हुए जेसुइट मिशनरी फेलिक्स अलफ्रेड प्लैटर ने अपनी पुस्तक द कैथोलिक चर्च इन इंडियाः येस्टरडे एंड टुडे (1964) में भारी प्रसन्न्ता व्यक्त की। उन्होंने सटीक समझा कि भारतीय संविधान ने न केवल भारत में चर्च को अपना धंधा जारी रखने की छूट दी है, बल्कि “टु इनक्रीज एंड डेवलप हर एक्टिविटी ऐज नेवर बिफोर विदाउट सीरियस हिंडरेंस ऑर एंक्जाइटी”। यह निर्विघ्न, निश्चिंत, अपूर्व छूट पाने का ही परिणाम हुआ कि चार-पाँच वर्ष में ही कई क्षेत्रों में मिशनरी गतिविधियाँ अत्यंत उछृंखल हो गईं। तभी सरकार ने मिशनरी गतिविधियों का अध्ययन करने और उस से उत्पन्न समस्याओं पर उपाय सुझाने के लिए 1954 में जस्टिस बी. एस. नियोगी की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय समिति का गठन किया। इस में ईसाई सदस्य भी थे। समिति ने 1956 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसका संपूर्ण आकलन आँखें खोल देने वाला था। किंतु कोई कार्रवाई नहीं हुई। न किसी ने उस के तथ्यों, साक्ष्यों को चुनौती दी, न खंडन किया। केवल मौन के षड्यंत्र द्वारा उसे इतिहास के तहखाने में डाल दिया गया।


अपनी जाँच-पड़ताल के सिलसिले में नियोगी समिति चौदह जिलों में, सतहत्तर स्थानों पर गई। वह ग्यारह हजार से अधिक लोगों से मिली, उस ने लगभग चार सौ लिखित बयान एकत्र किए, इसकी तैयार प्रश्नावली पर तीन सौ पचासी उत्तर आए जिस में पचपन ईसाइयों के थे और शेष गैर-ईसाइयों के। समिति ने सात सौ गाँवों से भिन्न-भिन्न लोगों का साक्षात्कार लिया। समिति ने पाया कि कहीं किसी ने ईसा की निंदा नहीं की, सभी जगह केवल अवैध तरीकों से धर्मांतरण कराने पर आपत्ति थी। यह आपत्तियाँ सुदूर क्षेत्रों में, जहाँ यातायात न होने के कारण शासन या प्रेस का ध्यान नहीं, वहाँ गरीब लोगों को नकद धन देने; स्कूल-अस्पताल की बेहतर सुविधाएं देने के लोभ; नौकरी देने; पैसे उधार देकर दबाव डालने; नवजात शिशुओं को आशीर्वाद देने के बहाने जबरन बप्तिस्मा करने; आपसी झगड़ों में किसी को मदद कर के बाद में दबाव डालने; छोटे बच्चों और स्त्रियों का अपहरण करने; तथा विदेशों से आने वाले धन के सहारे इन्हीं तरीकों से किसी क्षेत्र में पर्याप्त धर्मांतरण करा कर पाकिस्तान जैसा स्वतंत्र ईसाई राज्य बना लेने के प्रयासों, आदि संबंधी थीं।


समिति ने पाया कि लूथरन और कैथोलिक मिशनों द्वारा नीतिगत रूप से धर्मांतरित ईसाइयों में अलगाववादी भाव भरे जाते हैं। उन्हें सिखाया जाता है कि धर्म बदल लेने के बाद उनकी राष्ट्रीयता भी वही नहीं रहती जो पहले थी। अतः अब उन्हें स्वतंत्र ईसाई राज्य का प्रयास करना चाहिए। मिशनरी दस्तावेजों, पुस्तकों, कार्यक्रमों आदि का अध्ययन कर समिति ने पाया कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत के प्रति मिशनरी नीतियाँ हैं – (1) राष्ट्रीय एकता का प्रतिरोध करना, (2) भारत और अमेरिका के बीच सहअस्तित्व के सिद्धांत से मतभेद, (3) भारतीय संविधान द्वारा दी गई धार्मिक स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए मुस्लिम लीग जैसी ईसाई राजनीतिक पार्टी बनाकर अंततः एक स्वतंत्र राज्य बनाना अथवा कम से कम एक जुझारू अल्पसंख्यक समुदाय बनाना। भारतीय संविधान की उदारता देखकर यूरोप और अमेरिका में मिशनरी सूत्रधारों ने अपना ध्यान भारत पर केंद्रित किया, समिति ने इसके भी प्रमाण पाए।


किंतु समिति की रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण अंश मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की स्थिति पर था। उस ने पाया कि जिन क्षेत्र में स्वतंत्रता से पहले स्वायत्त रजवाड़ो का शासन था और मिशनरियों पर अंकुश था, अब वहाँ उनकी गतिविधियाँ तीव्र हो गई हैं। इन नए खुले क्षेत्रों में पिछड़े आदिवासियों को धर्मांतरित कराने के लिए विदेशी धन उदारता से आ रहा है। 'आज्ञाकारिता में भागीदारी' नामक सिद्धांत के अंतर्गत चर्च को बताया जाता है कि वे जमीन से जुड़े रहें, किंतु अपनी निष्ठा और आज्ञाकारिता को राष्ट्रीय पहचान से ऊपर रखें। समिति ने ईसाई स्त्रोतों से ही पाया कि वे मानते हैं कि उन के कार्य में सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति केवल धन है, हर जगह, हर समय, हर चीज धन पर ही निर्भर है। यहाँ तक कि जो भी व्यक्ति मिशनरियों से मिलने आता है केवल धन के लिए। भारतीय ईसाई विदेशी मिशनरियों का स्वागत भी केवल पैस के लिए करते हैं। कहीं किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक चर्चा या प्रेरणा का नामो-निशान नहीं था।


 'नेशनल क्रिश्चियन काऊंसिल ऑफ इंडिया' के खर्च का मात्र बीसवाँ अंश ही भारतीय स्त्रोतों से आता है, शेष बाहर से। कमो-बेश आज भी स्थिति वही है। यह कितनी विचित्र बात है कि जब जोर-जबर्दस्ती, छल-प्रपंच आदि द्वारा ईसाइयत विस्तार कार्यक्रमों पर चिंता होती है, तो ईसाइयत को भारत में दो हजार वर्ष पुराना, इसलिए, 'भारतीय' धर्म बताया जाता है। किंतु जब उसे राष्ट्रीय और आत्मनिर्भर होने के लिए कहा जाता है, तो उसे निर्बल होने के कारण विदेशी सहायता की आवश्यकता का तर्क दिया जाता है! जो भी हो, नियोगी समिति ने विदेशी स्त्रोतों से मिशनरी कार्यों के लिए आने वाले धन का भी हिसाब किया था और पाया कि 'शिक्षा और चिकित्सा' के लिए आए धन का बड़ा हिस्सा धर्मांतरण कराने पर खर्च किया जाता है।


जिन तरीकों से यह कार्य होता है वह आज भी तनिक भी नहीं बदले हैं। नियोगी समिति ने ठोस उदाहरण नोट किए थे। हरिजनों, आदिवासी छात्रों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उन्हें दी जानी वाली अतिरिक्त सुविधाओं को ईसाई प्रार्थनाओं में शामिल होने की शर्त से जोड़ा जाता है। बाइबिल कक्षा में शामिल न होने को पूरे दिन की अनुपस्थिति के रूप में दंडित किया जाता है। स्कूल के उत्सवों का उपयोग ईसाई चिन्ह की अन्य धर्मों के चिन्हों पर विजय दिखाने के लिए किया जाता है। अस्पतालों में गरीब मरीजों को ईसाई बनने के लिए दबाव दिया जाता है। सबसे जोरदार फसल अनाथालयों में काटी जाती है जहाँ बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक विपदा में तबाह परिवारों के बच्चों को लाकर सबको ईसाई बना लिया जाता है। अधिकांश धर्मांतरण अनिच्छा से होते हैं, क्योंकि सबमें किसी न किसी लाभ-लोभ की प्रेरणा रहती है। समिति ने पाया कि किसी ने अपने नए धर्म का कोई अध्ययन या विचार जैसा कभी कुछ नहीं किया। धर्मांतरित लोग केवल साधारण आदिवासियों के झुंड थे जिनकी चुटिया कटवा कर बस उन्हें ईसाई के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है।


रोमन कैथोलिक मिशनरी जरूरतमंदों को उधार देकर बाद में उसे वापस न करने के बदले ईसाई बनाने की विधि में सिद्धहस्त हैं। अन्य ईसाई मिशनरियों ने ही नियोगी समिति को यह बात बतायी। यदि कोई वापस करना चाहे तो उसे कड़ा ब्याज देना पड़ता है। कर्ज पाने की शर्त में भी कर्ज माँगने वाले को अपने हिन्दू चिन्ह छोड़ने, जैसे सिर की चोटी कटाने को कहा जाता है। कई लेनदार किशोर उम्र के और मजदूर होते हैं। यदि कोई व्यक्ति कर्ज लेता है, तो मिशनरी रजिस्टर में उस के पूरे परिवार को संभावित धर्मांतरितों में नोट कर लिया जाता है। कर्ज लेते समय ही एक वर्ष का ब्याज उस में से काट लिया जाता है। समिति को अपने संपूर्ण आकलन, अन्वेषण के दौरान एक भी ऐसा धर्मांतरित ईसाई न मिला जिस ने धन के लोभ या दबाव के बिना ईसाई बनना स्वीकार किया हो!


कितने आश्चर्य है कि जो प्रगतिवादी लेखक संगठन और वामपंथी नाट्यकर्मी प्रेमचंद की कहानी 'सवा सेर गेहूँ' पर हजारों नाटक मंचित कर चुके हैं, वे मिशनरियों की इस स्थायी, अवैध और घृणित महाजनी पर कभी कोई नाटक क्यों नहीं करते! मगर इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि भारतीय वामपंथियों को वैसा हर साम्राज्यवाद प्रिय है जिसका निशाना हिन्दू समाज हो।


नियोगी समिति का प्रमाणिक निष्कर्ष था कि धर्मांतरण लोगों को राष्ट्रीय भावनाओं से विलग करता है (यही अपने समय में गाँधीजी ने भी कहा था)। धर्मांतरित ईसाइयों को सचेत रूप से इस दिशा में धकेला जाता है। उन से 'राम-राम!' या 'जय हिन्द' जैसे अभिवादन छुड़वा कर 'जय यीशू' कहना सिखाया जाता है। मिशनरी स्कूलों के कार्यक्रमों में राष्ट्रीय ध्वज से ऊपर ईसाई झंडा लगाया जाता है। ईसाई अखबारों में गोवा पर पुर्तगाल की औपनिवेशिक सत्ता बने रहने के पक्ष में लेख रहते थे, और इस बात की आलोचना की जाती थी कि भारत उसे अपना अंग बनाना चाहता है (तब गोवा पुर्तगाल के अधिकार में था)।


मिशनरी गतिविधियों की एक तकनीक समिति ने नोट की कि वह स्थानीय शासन और सरकार पर नियमित आरोप और शिकायतें करके एक दबाव बनाए रखते हैं, ताकि कोई उन की अवैध कारगुजारियों पर ध्यान देने का विचार ही न करे। यह एक जबरदस्त तकनीक है जो आज भी बेहतरीन रूप से कारगर है। समिति ने पाया कि मध्य प्रदेश शासन मिशनरी सक्रियता के क्षेत्रों में पूरी तरह तटस्थ रहा है, उस ने कभी कोई हस्तक्षेप किया हो ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिला। किंतु मिशनरी संगठन सरकार पर प्रायः कोई न कोई भेद-भाव जैसी शिकायत करते रहने की आदत रखते हैं। समिति ने पाया था कि यह प्रशासनिक अधिकारियों को रक्षात्मक बनाए रखने की पुरानी मिशनरी तकनीक रही है। यही आज भी देखा जाता है, जब दिल्ली, गुजरात, झारखंड, उड़ीसा या मध्य-प्रदेश में मिशनरी संगठन अकारण या उलटी बयानबाजी करके सरकार को रक्षात्मक बने रहने के लिए विवश करते हैं। उलटा चोर कोतवाल को डाँटे जैसी सफल तकनीक।


नियोगी समिति ने अनेकानेक मिशनरी दस्तावेजों का अध्ययन करके पाया था कि भारत में मिशनरी धर्मांतरण गतिविधियाँ एक वैश्विक कार्यक्रम के अंग हैं जो पूरे विश्व पर पश्चिमी दबदबा पुनर्स्थापित करने की नीति से जुड़ी हुई हैं। उस में कोई आध्यात्मिकता का भाव नहीं, बल्कि गैर-ईसाई समाजों की एकता छिन्न-भिन्न करने की चाह है। जो भारत की सुरक्षा के लिए खतरनाक है। समिति की राय में ईसाई मिशन भारत के ईसाई समुदाय को अपने देश से विमुख करने का प्रयास कर रहे हैं। यानी, धर्मांतरण कार्यक्रम कोई धार्मिक दर्शन नहीं, बल्कि राजनीतिक उद्देश्य के अंग हैं। भारत के चर्च स्वतंत्र नहीं, बल्कि उन के प्रति उत्तरदायी हैं जो उनके रख-रखाव का खर्च वहन करते हैं। समिति के अनुसार धर्मांतरण दूसरे तरीके से राजनीति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।


यह संयोग नहीं है कि नियोगी समिति ने अवैध, राष्ट्र-विरोधी, समाज-विरोधी मिशनरी गतिविधियों को रोकने के लिए जो अनुशंसाएं दी थीं, उन का आज भी उतना ही मूल्य है। वे अनुशंसाएं यह थीं – (1) जिन विदेशी मिशनों का प्राथमिक कार्य मात्र धर्मांतरण कराना है, उन्हें देश से चले जाने के लिए कह देना चाहिए, (2) चिकित्सा और अन्य सेवाओं के माध्यम से धर्मांतरण बंद करने के लिए कानून बनाए जाने चाहिए, (3) किसी की विवशता, बुद्धिहीनता, अक्षमता, असहायता आदि का लाभ उठाते हुए धोखे या दबाव से धर्मांतरण को पूर्णतः प्रतिबंधित करना चाहिए, (4) विदेशियों द्वारा तथा छल-प्रपंच से धर्मांतरण रोकने के लिए संविधान में उपयुक्त संशोधन होना चाहिए, (5) अवैध तरीकों से धर्मांतरण बंद करने के लिए नए कानून बनने चाहिए, (6) अस्पतालों में नियुक्त डॉक्टरों, नर्सों और अन्य अधिकारियों के रजिस्ट्रेशन में ऐसे संशोधन करने चाहिए जिस से उनके द्वारा किसी मरीज के ईलाज और सेवा के कार्यों के दौरान उस का धर्मांतरण न होने की शर्त हो, (7) बिना राज्य सरकार की अनुमति के धार्मिक प्रचार वाले साहित्य के वितरण पर प्रतिबंध हो।


बाबा माधवदास संभवतः अब नहीं हैं, किंतु उनकी वेदना का कारण यथावत है। न रोग दूर हुआ, न उस के निदान की कोई चिंता है। कंधमाल (उड़ीसा) की घटनाएं इस का नवीनतम प्रमाण हैं। नियोगी समिति ने उस के सटीक उपचार के लिए जो सुचिंतित, विवेकपूर्ण अनुशंसाएं दी थीं। वह आज भी उतनी ही आवश्यक हैं जितनी तब थीं। परंतु उस के प्रति हिन्दू उच्च वर्ग की उदासीनता भी लगभग वैसी ही है। इन में वैसे हिन्दू भी हैं जो सभी बातें जानते हैं, किंतु अपने सुख-चैन में खलल डाल कोई कार्य नहीं करना चाहते। कोई दूसरा कर दे तो उन्हें अच्छा ही लगता है। पर उसके लिए एक शब्द कहने तक का कष्ट वह उठाना नहीं चाहते। भारत के उच्च वर्गीय हिन्दुओं में यह भावना केवल ईसाई मिशनरियों के आध्यात्मिक आक्रमण के प्रति ही नहीं, बल्कि इस्लामी आतंकवाद, कश्मीरी मुस्लिम अलगाववाद और नक्सली विखंडनवाद जैसे उन सभी घातक परिघटनाओं के प्रति है जिनका निहितार्थ उन्हें मालूम है। किंतु इन से लड़ने के लिए वे कोई असुविधाजनक कदम उठाना तो दूर, दो सच्चे शब्द कहने से भी वे कतराते हैं।


 डॉ० शंकर शरण के लेख का अंश


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