अतिथि यज्ञ (नृयज्ञ ) विवेचन
अतिथि यज्ञ (नृयज्ञ ) विवेचन
अतिथि उनको कहते हैं- जो मनुष्य पूर्ण विद्वान परोपकारी, जितेन्द्रिय, धार्मिक, सत्यवादी छल-कपट (आदि दोष) रहित, सत्योपदेशक, परमयोगी, सन्यासी नित्य भ्रमण करके विद्या तथा धर्म का प्रचार और अविद्या तथा अधर्म की निवृत्ति सदा करते रहते हैं |
- प0 म0 वि0। स. प्र. समु.४।
(२) जिसके आने जाने की कोई तिथि या दिन निश्चित न हो अकस्मात् स्वेच्छा से कहीं से आवे और चला जावे, या नित्य भ्रमण करने वाला (परिव्राजक-सन्यासी) हो।
(प.म. वि. ऋ.भा.,स. समु. ४।
(३) समय पाके गृहस्थ और राजा (शासक, अधिकारी, जनहित कर्ता नेता नायक) आदि भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य होते हैं। (स. प्र. समु. ४)
इसका भाव यह है कि विशेषतः समाज, राष्ट्र व जगत् के उपकारार्थ नि:स्वार्थ सेवापरायण जनसेवक या सत्योपदेष्टा पक्षपात रहित निष्काम, शान्त, परमयोगी, सर्वहितकारी, विद्वान ज्ञानी साधु सन्यासी परिव्राजकों का 'अन्न पान वस्त्र' द्वारा सत्कार करना। और सामान्यतः ब्रह्मचर्य आश्रम से सम्बन्धित आचार्य अध्यापक गुरुओं, राहत निष्काम, शान्त, परमयोगी, सर्वहितकारी, विद्वान ज्ञानी साध सन्यासी परिव्राजकों का 'अन्न पान वस्त्र' द्वारा सत्कार करनाऔर सामान्यतः ब्रह्मचर्य आश्रम से सम्बन्धित आचार्य अध्यापक गुरुओं, वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण कर तपः स्वाध्याय में रत पितृ समान विद्वानों तथा संन्यासाश्रमी नित्य भ्रमण करने वाले धर्मात्मा ज्ञानियों के भोजन-निवास-स्वाध्याय के समुचित प्रबन्ध में हिस्सा बंटाना अतिथि यज्ञ है|