अतिथि यज्ञ
अतिथि यज्ञ
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्॥१॥
स्व॒यमनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वाऽिवात्सीात्योदकं व्रात्य
तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य
यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति ॥२॥ -अथर्व०
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक, गृहस्थों के घर आयें, तब गृहस्थ लोग स्वयम् उनके समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछे कि
कल के दिन आपने कहाँ निवास किया था? हे ब्रह्मन्! जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हो ग्रहण कीजिए और हम लोगों को अपने सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा एवम् उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसे नित्यप्रति किया करें।
इन पञ्चमहायज्ञों को स्त्री और पुरुष दोनों प्रतिदिन किया करें।