अतिथि-यज्ञ


अतिथि-यज्ञ


      पारिवारिक आतिथ्य की एक सविख्यात मनोरम कहानी सुनी जाती है ! आप जिसमे  यदुकुल-कमल-दिवाकर श्रीकृष्ण द्वारा अपने परम मित्र विप्र सदामा के आतिथ्य का हृदयग्राही वर्णन सुनते है ।


         जैसे ही द्वारपाल ने महलों में पहुँचकर श्रीकृष्ण महाराज को सन्देश दिया-


सीस पगा न झगा तन पै प्रभु जान को आहि बसै केहि ग्रामा।


धोती फटी सी लटी दुपटी अरु पाय उपानहुँ के नहिं सामा।


दार खड्यो द्विज दुर्बल देखि रह्यो चकिसो वसुधा अभिरामा।


पछत दीनदयाल को धाम, बताबत आपनो नाम सुदामा॥


      सदामा का नाम सुनते ही श्री कृष्ण प्रेम-पुलकित हो दौड़ पडते हैंसुदामा मिलन की इस आतुरता का कविवर नरोत्तमदास ने बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है-


बोल्यो द्वारपालक सुदामा नाम पाँडे सुनि।


छोड़े राज-काज ऐसे जी की गति जाने को॥


      सुदामा को देखते ही कृष्ण कौली भर लेते हैं। जी भर कर मिलते और तब महलों में ले जाते हैं। वहाँ स्वयं सुदामा के पैर धोने लगते हैं। पर यह क्या ? परात के पानी की आवश्कता ही नहीं पड़ती प्रेमाश्रुजल से ही वे मित्र के चरण पखारते हैं। कवि के शब्दों में -


ऐसे बिहाल विवाइन सों फटे कण्टक जाल लग पुनि जोए।


हाय महादुःख पायो सखा तुम आये इतै न कितै दिन खोए॥


देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिके करुणा-निधि रोए।


पानी परात को हाथ छुओ नहिं नैनन के जल सों पग धोए॥


      मित्र-धर्म और अतिथि-यज्ञ का ऐसी अद्भुत निष्ठा से पालन करने वाले योगेश्वर कृष्ण आप धन्य हैं !


      अतिथि यज्ञ का अनुष्ठान बड़े भारी मेवा मिष्ठान से ही सम्भव हो, ऐसा कुछ नहीं हैहार्दिक प्रेम ही मूल्यवान वस्तु हैमहाभारत में 'सत्तू यज्ञ' की कहानी प्रसिद्ध है। कई दिन से उपवास कर रहे ब्राह्मण परिवार के मुखिया ने भूखे अतिथि की क्षुधा-शान्ति के लिए किस प्रकार क्रमशः एक-एक के भाग के सत्तू देकर इस नित्य कर्तव्य का पालन किया और तब किस प्रकार उस भूमि में लेटने वाले नेवले का आधा भाग स्वर्णिम हो गया किन्तु महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में शेष आधा भाग स्वर्ण का न हो सका। यह अलंकारिक वर्णन है किन्तु इससे हार्दिक भावना का महत्त्व भली भाँति स्पष्ट है।


      'दुर्योधन की मेवा त्यागी साग विदुर घर खाये' इस कथन में भी उपरोक्त सचाई बोल रही है। भीलनी (शबरी के स्नेह सने जंगली बेर श्रीराम कितने प्रेम से ग्रहण करते हैं और कहते हैं-


साँच कहौं सुनि भामिनि बाता।


मानहुँ एक प्रेम करि नाता॥


      स्पष्ट है कि अतिथि सत्कार अत्यधिक श्रद्धा और प्रेम पूर्वक करना चाहिए। सच्चा अतिथि भी बाहरी आडम्बर को न देखकर हृदय की गहराई, सात्विकता और पवित्रता को ही महत्व देता है | 


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