अथ विद्या-सन्धिः


अथ विद्या-सन्धिः


      अधिविद्य-कक्षा के पूर्वरूप आचार्य और उत्तररूप अन्तेवासी घटकद्वय का उल्लेख करने के पश्चात् तीसरे घटक विद्या-सन्धि का प्रकरण उपस्थित होता हैसन्धि वह कड़ी है, जो दो तत्त्वों को जोड़ती है। उसकी यह विशेषता है कि वह अपने दो पूर्वरूप और उत्तररूप घटकों में परिवर्तन लाती है। उदाहरणार्थ यदि हम अधियज्ञ-कक्षा की समित्सन्धि पर विचार करें, तो हमें पता चलेगा कि उसके पूर्वरूप अग्नि और उत्तररूप आज्य में क्या परिवर्तन आया। यदि समित्सन्धि न हो तो अग्नि और आज्य अपनी योग्यता का सम्पादन नहीं कर सकतेअग्नि को धारण करने के लिए समिधा आवश्यक है। घृत को अपने स्नेह-विस्तार के लिए समिधा आवश्यक है। इसलिए कहा गया है कि- समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयत। तो हम कहना चाहेंगे कि विद्या वह समित् है, समिधा है, जिससे आचार्यअग्नि को ग्रहण किया जा सकता है और अन्तेवासीआज्य से बोधित किया जा सकता है। विद्या-सन्धि के होने पर आचार्य और अन्तेवासी में सहज परिवर्तन आने लगता हैआचार्य अन्तेवासी में विद्या का आधान करने से पूर्व स्वयं संनद्ध होकर वात्सल्य-भावना से प्रेरित हो अपने विषय को वाणी द्वारा प्रसारित करता है और अन्तेवासी भी अपने आलस्य, प्रमाद, उद्दण्डता, चपलता, मद, मोह, गोष्ठी, अहङ्कार आदि दोषों को दूर करने का प्रयत्न करता है, जिससे कि उसमें विद्या का आधान हो सके-आचार्य का विद्या-दान और अन्तेवासी का विद्याग्रहण सफल हो सके।


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