अर्थ शुचिता


अर्थ शुचिता


       यह एक व्यापारी (वैश्य) हैं। इनका नाम है तुलाधार- तुला(तराजू) ही भगवत्प्राप्ति में जिनका आधार बन गई या तुला के आधार से ही जिन्होंने भगवान् को पा लिया, ऐसे हैं ये तुलाधार| महाभारत में इनकी कथा आती है। कथा का सार संक्षेप यह है-


      जाजलि नामक एक महात्मा ने घोर तपस्या की। 'वृक्ष मूल निकेतन' एक वृक्ष के नीचे एक लम्बे समय तक वे समाधिस्थ बैठे रहे। आँखे खोली। वृक्ष की एक टहनी पर उनकी निगाह लग गईउनके दृष्टि-निक्षेप मात्र से पक्षियों का एक जोड़ा जल गया। महात्मा को लगा उन्हें सिद्धि मिल गई। भिक्षा के लिये एक सद्गृहस्थ के द्वार पहुँचेअलख जगायागृहदेवी पति शुश्रूषा में लगी थीं। कुछ विलम्ब हुआ। महात्मा को सिद्धि का अभिमान जग चुका था। देवी को कुछ कठोर वचन कहे, बोले- 'जानती नहीं हम कौन हैं ? देवी ने सरल भाव से उत्तर दिया-'हाँ, कुछ-कुछ जानती तो हूँ पर आप भी हमें पक्षियों का जोड़ा समझने की भूल न करें।' अब तो महात्मा अवाक् थे। देवी के चरण छूने लगे। बोले- 'तुम्हारी सिद्धि तो निःसन्देह महान् है। गृहस्थ में रहते तुमने यह सिद्धि कैसे प्राप्त की 'क्या साधना की तुमने ?'


        देवी ने सहज भाव से उत्तर दिया- 'मेरे निकट पति ही परमेश्वर है। पतिदेव की पूजा (आज्ञा-पालन) ही प्रभु-पूजा है। मैं तो पति सेवा और गृहस्थ धर्म पालन के अतिरिक्त और कोई साधना नहीं जानतीआपको विशेष जानने की इच्छा ही तो अमक स्थान पर जावें और तुलाधार वैश्य से पूछे।'


        महात्माजी तुलाधार वैश्य की दुकान पर पहुँचे। वह अपने कों से बड़ी ही मिठास भरी वाणी में बातें करता थाएक भाव उसके यहाँअपनी इस कर्मयोग साधना में वह इतना लीन था कि महात्मा की ओर दृष्टि जा न सकी। महात्माजी पुनः झल्लाये। उत्तर वही मिला- 'भगवन् हम पक्षी के जोड़े नहीं हैं और न वह गहदेवी हैं। आप क्रोध न करें प्रभु, हमारा ध्यान नहीं जा सका।'


      महात्माजी के पूछने पर तुलाधार ने अपनी सिद्धि का रहस्य इस प्रकार वर्णित किया- 'महाराज ! सच बोलना और पूरा तोलना, हम तो इतना मात्र ही जानते हैंधोखा धड़ी, छल-कपट, वस्तुओं में मिलावट (ब्लैक बाजी) आदि हमारे निकट महापाप है। ग्राहक के साथ हम ऐसा ही बर्त्तते हैं, जैसा मानो भगवान् के साक्षात् के समय उनसे व्यवहार करते। हम अपने यहाँ कोई ऐसी वस्तु नहीं बेचते जिससे प्रयोग कर्ताओं के स्वास्थ्य या मन पर बुरा प्रभाव पड़ेन किसी ऐसी वस्तु का किसी ऐसे तरीके से व्यापार करते हैं जिससे हमारे महान् देश का पवित्र यश कंलकित हो। (कहानी की असगंतियों या अत्युक्तियों पर हम विचार नहीं कर रहे, उससे जो जीवन दिशा हमें मिलती है, एकमेव वही विचारणीय है।)


      यह सरलतम कर्मयोग जिसे अपनाकर तुलाधार ने जीवन-सिद्धि प्राप्त की, हम सभी का कल्याण-पथ प्रशस्त कर सकती है। प्रत्येक अध्यापक यदि विद्यालय को अपने महान् राष्ट्र का पवित्रतम मन्दिर समझकर उसमें प्रवेश करे, विद्यार्थियों को अपने राष्ट्र का श्रेष्ठ नागरिक बनाने की भावना से-इस कार्य को सर्वोत्तम प्रभु पूजा समझकर-पढ़ाये, इसी प्रकार एक सैनिक युद्ध क्षेत्र में राष्ट्र-रक्षा की उच्च मनः स्थिति, से युद्ध करे एक व्यापारी राष्ट्र गौरव और समाज सेवा की भावना से व्यापार करे और एक मजदूर इसी उच्च एवं आदर्श भावना से इन सबका सहयोग करे इतना ही नहीं एक ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वनस्थी और सन्यासी भी कर्त्तव्य बुद्धि से अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों को सम्पादित करें तो यह 'वर्णाश्रम धर्म' का पालन ही वास्तव में सच्ची ईश्वर भक्ति है, यही परम सिद्धि है | 


      पीछे हम आहार शुद्धि एवं सात्विक भोजन के महत्व पर विचार कर चुके हैं। इस सन्दर्भ में हम याद रखें कि आहार शुद्धि में जहाँ यह आवश्यक है कि अण्डा, माँस मदिरा आदि किसी अभक्ष्य वस्तु का सेवन न किया जावे, वहाँ इससे भी अधिक आवश्यक यह है कि अर्थोपार्जन या जीविकोपार्जन के साधन शुद्ध हों। किसी का दिल दुखा कर, धोखे, छल-कपट, झूठ, अन्याय, ब्लैक एवं रिश्वत से प्राप्त धन से जो भोजन किया जाता है वह चाहे दूध, फल, मेवा-मिष्ठान आदि सात्विक कोटि का ही क्यों न हो किन्तु वस्तुतः असात्विक या अशुद्ध ही है।


      भीष्म पितामह का उदाहरण


      'महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका है। महाभारत के अमर सेनानी. अखण्ड ब्रह्मचारी भीष्म पितामह शर-शैया पर लेटे अब चिर निद्रा को प्राप्त होना ही चाहते हैं। महाराज युधिष्ठिर श्रीकृष्ण सहित पितामह की सेवा में पहुँच कर धर्मोपदेश की प्रार्थना करत हैं। पितामह कहते हैं-हाँ आज मैं धर्मोपदेश कर सकता हूँ, चूकि दर्योधन के अशुद्ध अन्न से निर्मित रक्त-कण अर्जन के तीखे तीरों से अब नि:शेष हो चुके हैं |


       कहते हैं कि-द्रोपदी अपमान जैसे अनर्थकारी अवसरों पर गर्योधन का विरोध नहीं कर सका इसका कारण यह अशुद्ध अन्न ही था


       दुर्योधन एक प्रसंग में कहता है-


जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः।


जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः॥


      अर्थात् 'मैं यह जानता हूँ कि धर्म क्या है, पर उसमें मेरी प्रवत्ति नहीं हो पाती, मैं यह भी जानता हूँ कि अधर्म क्या है, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं है' ..


      यहाँ दुर्योधन के इस कथन के पीछे जुए आदि से प्राप्त यह अशुद्ध कमाई ही मूल कारण है। पवित्र वेदों में स्थान-स्थान पर ऐश्वर्यशाली बनने और खूब धनोपार्जन करने के निर्देश हैं। वैदिक भक्त प्रभु चरणों में विनय करता है- 'वयं भगवन्तः स्याम' ( हम भगवान्-ऐश्वर्य वाले बनें), 'वयं स्याम पतयो रयीणाम्, (हम अपार धनों के स्वामी बनें) इत्यादि। किन्तु ध्यान रहे यहाँ 'रयिं शब्द आया है जिसका स्वरुप एक अन्य मन्त्र में बताया है-


अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवे दिवे


यशसं वीरवत्तमम् ॥ (ऋ० ११३)


      हम 'रयिं' (उत्तम धनों) का भक्षण करने वाले (प्राप्त करने वाले) हों जो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल, प्रतिदिन पुष्टि देने वाला, यश और वीरत्व प्रदान करने वाला हो। कैसा मंगलकारी उपदेश है, वेद माता का। आवश्यकता है कि 'अग्ने नय सुपथा राये' इस वैदिक प्रार्थना में हम 'सु-पथा' शब्द की महिमा को समझें |


       महर्षि मनु अर्थ शुचिता को सबसे बड़ी शुचिता मानते हैं।


सर्वेषामेव शौचानां अर्थ शौचं परम स्मृतम्॥ ५॥१०६॥


       अर्थ शुचिता के अभाव में हमारे समस्त पूजा-पाठ, दान व्रतादि दम्भ मात्र रह जाते हैं। अतः सद् गृहस्थ (वैदिक स्वर्ग) के निर्माण में आजीविकोपार्जन के साधनों की पवित्रता पर सर्वाधिक ध्यान देकर चलना चाहिए।


      सात्विक भोजन के इस सन्दर्भ में (१) ऋत् भुक्-ऋतु अनुकूल भोजन (२) मित भुक्-भूख से कुछ कम ही खाना (ठूस-ठूस कर कदापि नहीं खाना) तथा(३) हितभुक-स्वास्थ्य रक्षक भोजन-इस त्रिक् का विचार भी आवश्यक है।


       इस प्रकरण में इतना और जान लेना आवश्यक है कि आहार हम मुख से ही नहीं आँख-कान आदि इन्द्रियों से भी करते है इसीलिए वैदिक भक्त विनय करता है-


भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः


      अर्थात् हम कानों से भद्र सुनें तथा आँखों से भद्र ही देखेंआज सिनेमाघरों के अश्लील दृश्यों और गीतों तथा रेडियो द्वारा प्रसारित अश्लील गीतों से हमें हमारे नेत्रों और कानों द्वारा जा अपवित्र खराक-मिल रही है, उसने तो नई पीढी का सर्वनाश हा कर दिया है।


      सिनेमा कला के हम विरोधी नहीं हैं। उसके सदपयोग द्वारा राष्ट जीवन में नई चेतना फॅकी जा सकती है। हम मनोरंजन क रोधी भी नहीं किन्तु गृहस्थ जीवन में तो मनोरंजन की आर मा अधिक आवश्यकता हैउसके अनेकों सष्ठ प्रकार हो सकत हैकिन्तु इस प्रकार मनारजन के नाम पर सर्वनाश का सौदा कान विचार शील करना चाहेगा ?


      संगीत, वाद्य, नृत्य आदि कलाओं का उपयोग यदि जीवन के लिए किया जाय तो इन ललित कलाओं के माध्यम से मानव मन में मानवता के सुप्त तार झंकृत किए जा सकते हैं, पर वासना के रंग में रंग कर आज इस अमृत को हलाहल विष बना दिया गया है। 'कला जीवन के लिए' इस आदर्श को भुलाकर आज 'कला-कला के लिए' के सिद्धान्त को स्वीकार कर हमने इन्द्रियों की दासता को स्वीकार कर लिया है। यही कारण है कि-


      मातृवत् परदारेषु पर द्रव्येषु लोष्ठवत्।


आत्मवत् सर्वभूतेषुः यः पश्यति स पश्यति॥


       -की स्वर्गिक भावना आज अव्यावहारिक मानी जाने लगी हैवैदिक स्वर्ग के सदस्य-सदस्यायें इन्द्रिय स्पर्श मन्त्र एवं मार्जन मन्त्रों के प्रकाश में प्रातः सायं सन्ध्या में बैठकर आत्म-निरीक्षण द्वारा अपनी इन्द्रियों को इन दोषों से बचाते हैं तथा सात्विक अन्न के साथ ही सात्विक विचारों के भोजन द्वारा अपने शरीर और आत्मा दोनों को बलिष्ठ और यशस्वी बनाते हैं।


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