अन्तेवासी की पात्रता


अन्तेवासी की पात्रता


      अन्तेवासी आचार्य-चरणों में समित्पाणि होकर आया था। वे तो आचार्य-चरणों में समर्पित कर दी। तत्पश्चात् वह अञ्जलि बनाकर आचार्य के सम्मुख बैठ गया। वह उस समय करपात्र था। आचार्य ने पूछाक्या और पात्र नहीं है ? अन्तेवासी ने उत्तर दिया-नहीं भगवन्! मैं तो समित्पाणि होकर आया था, पात्र कहाँ सम्भालता? अब तो लेने के लिए अञ्जलि बना बैठा हूँजो भी दो, इसी में ले लूँगा। आचार्य बोले-अच्छा वत्स, लो सम्भालो। आचार्य ने जलपात्र उठाया और अन्तेवासी की अञ्जलि में डालने लगा। अञ्जलि से पानी गिरने लगाजल को गिरते देख आचार्य ने कहा-वत्स! मेरे द्वारा दिये हुए कण-कण की रक्षा करना, यह बिखेरने के लिए नहीं है। लो सम्भालो! अब अन्तेवासी सावधान था। उसने अपनी अञ्जलि को अच्छी तरह बाँधा और कहा कि अब डालिये। आचार्य डालता जा रहा था और जल अञ्जलि के ऊपर से गिर रहा था, नीचे से नहीं। आचार्य ने अन्तेवासी को वास्तविक पात्र समझ उसकी अञ्जलि के नीचे अपनी अञ्जलि लगाकर कस दी और पानी का प्रवाह जारी रखा और आचार्य ने कहा- वत्स! जिस प्रकार जल-कण को तूने सुरक्षित रखा, वैसे ही ज्ञान-कण को तू सुरक्षित रखनामैं भर-भरकर दूंगा, तू भर-भरकर लेनाइस प्रकार पञ्चाङ्गलियों से आबद्ध अञ्जलि के ऊपर से पानी बह गया। वैसे ही पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को अञ्जलि बना ज्ञान-कण संग्रह करना, मैं तुम्हें ज्ञान-जल में स्नान कराऊँगा। तभी तुम स्नातक कहलाओगे। लो अब अञ्जलि का जल पात्र में छोड़ दो, भूमि पर मत छोड़ना। जैसे मैंने तुम्हारे पञ्चेन्द्रियरूप मस्तिष्क-पात्र में ज्ञान-जल भरा है, वैसे ही अपने ज्ञान-प्रवाह को पात्रों में देना, बिखेरना नहीं, चुराना नहीं, रोकना नहीं, इस प्रवाह को जारी रखना। मानो उपरिवर्णित विद्या-विषयक यास्क-वचनों को मूर्तरूप दिया जा रहा हो।


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