अंग्रेजी और राष्ट्रीय एकता

               अंग्रेजी और राष्ट्रीय एकता


हम सभी भारतवासी जानते हैं कि भारत की एकता कलिक एकता के कारण है। पूर्व और पश्चिम तथा दक्षिण और उता को मिलाने वाला अदभुत कार्य भारत में हजारों वर्षों से चला आ रहा है| 


हमारे भारतवर्ष में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं जी हमारी भारतीयता को जोड़ने के लिए एवं उसको जीवित मलने के लिए सदैव ही स्वदेशी भाषा का योगदान देती रही हैसन्त कबीर, सन्न तुलसी, शंकराचार्य जी, स्वामी दयानन्द जी एवं ऐसे अनेक महापुरुष हैं जिन्होंने हमारी भारतीय कृति का प्रचार-प्रसार हमारे देश की ही स्वदेशी भाषाओं में किया एवं गष्ट को एक धागे में पिरोने का कार्य किया। 


अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अपनी विदेशी भाषाओं का प्रयोग किया न कि किसी अन्य भाषा का। इतना सब कुछ होने के बाद भी आज हमारे समाज में ऐसी मिथ्या अवधारणा बनाई जा रही है कि अंग्रेजी भाषा राष्ट्र में एकता लाती है। अंग्रेजी भाषा के समर्थक कहते हैं कि अंग्रेजी देश की एकता की श्रृंखला है। यदि यह बात सत्य है तो भारतीय भाषाओं में परस्पर विप क्यों होते? पाठकवृन्द ध्यान दें कि जब तक भारतवर्ष में अंग्रेजी का प्रयोग होता रहेगा, तब तक भारतीय जनता और उनकी स्वयं की भाषाएँ परस्पर समीप न आ सकेंगी।


आज हमारे देश में जो बड़े-बड़े घोटाले तथा बड़ी-बड़ी लट-खसोटी की घटनाएं सामने आ रहीं हैं। वे सभी अंग्रेजी भाषा के कारण ही आ रही हैं। प्राचीन काल में जब हमारे देश में संस्कृत भाषा जनसाधारण की व्यवहारिक एवं प्रायोगिक भाषा कहलाती थी तब ऐसी घटनाओं का पता भी नहीं चलता था। परन्तु आज अंग्रेजी पढ़े-लिखें थोड़े से लोग इस अंग्रेजी के द्वारा करोड़ो लोगों को धोखा दे रहे हैं। मेरी समझ में वे लोग बेवकूफ हैं जोकि अंग्रेजी भाषा के साथ चलते हुए उच्चतम समाजवाद को कायम करना चाहते हैं। वे भी बेवकूफ हैं जो समझते हैं कि अंग्रेजी के रहते हुए जनतंत्र भी आ सकता है। हम तो समझते हैं कि अंग्रेजी के होते हुए यहाँ ईमानदारी आना भी असंभव है। जिस ज़बान को करोड़ों लोग समझ भी नहीं पाते वह भाषा भला क्या राष्ट्रीय एकता को स्थापित कर सकती है? ऐसी भाषा में चाहे झूठ बोलिए अथवा धोखा दीजिए सब चलता रहेगा, क्योंकि लोग समझेंगे ही नहीं। मजदूरों में से कितने लोग अंग्रेजी जानते होंगे? मजदूरों की ओर से उनके पेट के सवाल ऐसी भाषा मेंलिखे जाते हैं जो कि उनकी समझ से परे है| 


__अंग्रेजी का शब्दकोश हमारी लोकभाषा की अपेक्षा अधिक सम्पन्न है, यह बात सर्वथा असत्य है। अंग्रेजी केशब्द अधिक से अधिक ढाई लाख होंगे जबकि हिन्दी भाषा के शब्द लगभग छह लाख हैं। शब्दों का भण्डार होते हुए भी शब्दाभाव का अनुभव इसलिए होता है कि इनका कोई इस्तेमाल नहीं करता। यदि अंग्रेजी इसी क्षण हटा दी जाए तो देश का कोई भी काम एक मिनट भी रुकने वाला नहीं है।


रुकने वाला नहीं है। अंग्रेजी के बिना हमारी वैज्ञानिक उन्नति न हो सकेगी। यह दलील थोथी है। विज्ञानशास्त्र, रसायनशास्त्र तथा भौतिकशास्त्र आदि विषयों में हम तब तक पिछड़े रहेंगे जब तक यहाँ अंग्रेजी बनी रहेगी। 


इन सब बातों का जब हम अध्ययन करते हैं तो इस बात का स्पष्टीकरण तो साफ-साफ हो जाता है कि अंग्रेजी भाषा से राष्ट्रीय एकता की चेतना को लाना संभव नहीं हैराष्ट्रीय एकता तो हमारी स्वदेशी भाषा से ही आ सकती है। इसी बात को जब एक बार उदयपुर रियासत के दिवान मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या ने स्वामी दयानन्द जी से पूछा कि महाराज ! राष्ट्र की एकता में आप किननागेउसके उत्तर में स्वामी जी ने कहा कि 'एक भाषा, एक भाव और एक धर्म राष्ट्रीय एकता के आधार हैं।' इस पर भी स्वामी जी ने भाषा पर ज्यादा जोर दिया था।


पाठकबन्धु इस बात पर ध्यान दें कि भारतीय । भाषाओं की अपंगता अब तभी समाप्त होगी जब यह राष्ट्र अंग्रेजी और अंग्रेजियत से लड़ने का मन बना सकेंराष्ट्र समृद्ध कैसे होगा, इसका वर्णन हमें ऋग्वेद के वारसूक्त के मन्त्र से स्पष्ट होता है कि - 


    अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा


यज्ञियानाम्। तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां


   भूर्यावेशयन्तीम्॥


इस मन्त्र में वाणी के मानवीकरण द्वारा समाज को राष्ट्र की समृद्धि व एकता का रहस्य बताया गया है। वाग्देवी की यह स्पष्ट घोषणा है कि यदि मैं राष्ट्र की हूँ तो इस राष्ट्र में सभी प्रकार के ऐश्वर्यों का संगम कराती हूँ। यज्ञीय भावना वालों में ज्ञान की इच्छा को पहले पहल मैं ही उत्पन्न करती हैं अत: वे बड़ों के सत्कार समानों से सहयोग और छोटों की सहायता में मेरे अर्थात् राष्ट्र भाषा : के प्रयोग को ही प्राथमिकता प्रदान करते है। शरीर, नगर और राष्ट्र की रक्षा चाहने वाले देव गण पढ़ चाहे जितनी भाषाए ले परन्तु विशेष रूप में धारण मुझे अर्थात् राष्ट्र भाषा को ही करते है, क्योंकि मैं उस राष्ट्र के विपुल ऐश्वर्य की स्थिति विधातृ हूँ, उसे नष्ट नहीं होने देती तथा मैं ही उस राष्ट्र को अप्राप्त ऐश्वर्य की विपुलता से प्राप्ति कराने वाली हूँ


विश्व के प्राचीनतम साहित्य का यह वचन आज भी कितना सार्थक है। इसका प्रमाण अपनी-अपनी भाषाओं के ही माध्यम से अपूर्व समृद्धि पाने वाले राष्ट्र ब्रिटेन, रूस, चीन, इज़राइल, जापान, फ्रांस, जर्मन और अरब आदि के रूप में सबके सामने है आज हम अन्धकार) में पड़कर अपने राष्ट्र की व अपनी बर्बादी करने में तुले है। यजुर्वेद साफ उद्घोष करता है कि- अन्धन प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ततो भूय इव ते तमो यऽउ सम्भूत्या रताः॥ आज हम उसी असम्भूति कीउपासना कर घोर अन्धकार में जा रहे है। हमें सम्भूति की उपासना कर ऊपर उठने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए।।


चाहिए।। हम अंग्रेजी भाषा के या उसे पढ़ाने के विरोधी नहीं है। अंग्रेजी की अनिवार्यता और अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग के विरोधी है। हम अंग्रेजी को हटाना चाहते हैंपरन्तु उसे मिटाना नहीं चाहते। उस स्थान से हटाना चाहते है। जहाँ रहकर वह हानि कर रही है। परन्तु जहाँ हित कर सकती है वहाँ आदर पूर्वक रखना चहाते है। आज हिन्दुस्तान में उसने जो जगह हथिया रखी है, उसके कारण हिन्दुस्तानी बच्चे के दिमाग को लकवा मार रहा हैहिन्दुस्तानी युवकों का मौलिक चिन्तन ध्वस्त हो रहा है |


आज हमें हरिश्चन्द्र जी की उन पंक्तियों को स्मरण रखना चाहिए कि-


                           निज भाषा उन्नति अहै | 


                            सब उन्नति का मूल।।


१९ इस प्रकार अन्त में निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि हमें हमारे राष्ट्र की व हमारी भाषाओं की एकता को बनाना है। तो अंग्रेजी को छोड अपनी प्रान्तीय भाषाओं को अपनाना होगा, तभी हमारा भारतवर्ष एकता की डोरी में माला के समान सुशोभित होगा और हम गौरव से यह कह सकेंगे कि-


                 कहेगा फिर यह विश्व सारा,


            वही विश्वगुरु प्यारा भारतवर्ष हमारा॥


                                                                                              - शास्त्री द्वितीय वर्ष 


                                                                                         गुरुकुल पौन्धा देहरादून


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।