अमृत का व्यापार
अमृत का व्यापार
सिक्ख गुरु उस सन्त-परम्परा में हुए जो अपने वर्तमान को सार्थक करने पर बल देती थी। जब भूतकाल भार बनकर वर्तमान को जकड़ लेता है तो वर्तमान के प्रति अनास्था जागती है । व्यक्ति स्वयं को दीन-हीन समझने लगता है। इसी तरह जब व्यक्ति भविष्य के विषय में प्राकाशीय कल्पना करता हुआ सुध-बुध भूल जाता है तब उसकी शक्ति बँट जाती है और वर्तमान को सार्थक बनाने के प्रयत्नों को शिथिल कर देता है । गुरु नानक देव ने अन्य सन्तों की तरह वर्तमान को सफल बनाने की साधना पर बल दिया है। वर्तमान की साधना को वे अमृत का व्यापार कहते हैं ।
शरीर में आत्मा अमृत का व्यापारी होता है जीवन में सुख-दुःख, आशा-निराशा, राग-विरागादि का द्वन्द्व चलता ही रहता है । जीव उसमें ऐसा फंस जाता है कि अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान नहीं पाता। प्रात्मा इस द्वन्द्वात्मक जगत् में से अमृत-रस दुह लेता है । प्रात्मा को इस ओर प्रवृत्त करने वाला साधक रात-दिन जागता है। दिव्य चक्षु खल जाने के बाद नींद कहाँ ? उसकी सारी इन्द्रियाँ दिव्यता से भर जाती हैं; वाणी में सिफ़्त पैदा हो जाती है । वह अमृत-सार पा लेता है-
अहनिसि जागे नींद न सोवै
सो जाण जिसु वेदन होवे।
प्रेम के कान लगे तनु भीतरि
वैदु कि जाणै कारी जीउ ।
जिसनो साचा सिफती लाए
गुरमुखि विरलै किसे बुझाए।
अमृत को सार सोई जाणे
जि अमृत का वापारी जीउ।
नश्वर शरीर की सीमाओं में बंधा हुअा होने पर भी प्रात्मा अमृतत्व में रमता रहता है - यह वेद की सुपरिचित विचारधारा है। गुरु नानक देव उनके अनुयायी अन्य गुरु उसी अमृतत्व की साधना करने पर बल देते थे। वे अमृत रस पीने के लिए लालायित रहते थे। उन्हें पहचान थी कि अमृत का दोहन कैसे किया जाता है ? शरीर का व्यापार तो मृत्यु का व्यापार है । अमृत रस को पहचान कर उसका सेवन करना आत्मा का काम है। साधना द्वारा प्रात्मा के ऐश्वर्य में रमना और इस तरह अमृत का व्यापार करना गुरु नानक की शिक्षाओं का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने जो मार्ग सुझाया उसी को सिक्ख पन्थ नाम दिया गया है यह साफ़ सुथरा रास्ता है। कई लोग तो राह की खोज में भटकते-भटकते सारा जीवन खो देते हैं । गुरु नानक ने अनुभव और साधना से भ्रमोच्छेदन करके अमृत के व्यापार का रास्ता सुझाया-यह उनका मानवता पर उपकार हैं ।