अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानन्द

संगीनों के सामने सीना तानने वाले वीर संन्यासी


अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानन्द


      अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रमों के कर्णधार, भारतीय संस्कृति एवं शिक्षा के पोषक, समाज सुधारक और अछूतोद्धारक स्वामी श्रद्धानन्द का नाम देशभक्तों की अग्रणी पंक्ति में अंकित है|


      स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म संवत् १९१३ विक्रमी (सन १८५६ ईस्वी) में जालंधर जिले के गांव तलवन में हुआ था। आपके पिता श्री नानकचन्द जी पहले फौज में रिसालदार थे। फिर पुलिस कोतवाल बनाये गए। बांदा, बलिया, बरेली, बनारस आदि शहरों में जहां-जहां आपके पिता रहे वहीं आपकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। एक कोतवाल का पुत्र होने के कारण आपके पास धन का अभाव नहीं था, ऊपर से सत्ता का अहंकार। मनचाहा धन और निरंकुश अहंकार के कारण इनमें सारे दुर्गुण घर कर गये। उस समय इनका नाम मुंशीराम था। 


      बरेली में एक बार आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती आयेउनके व्याख्यानों का मुंशीराम के युवा मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके प्रभाव से नास्तिक से आस्तिक, कदाचारी से सदाचारी, उच्छृखल से गम्भीर बन गये। स्वामी दयानन्द के व्याख्यानों से ये भारतीय संस्कृतिसभ्यता और शिक्षा के परम उपासक और स्वराज्यसमर्थक देशभक्त बन गये। इनके जीवन का व्यवहार और लक्ष्य ही बदल गया |


      आपने वकालत की डिग्री लेकर कई वर्ष तक लाहौर और जालंधर में वकालत की। 'सद्धर्म प्रचारक' नाम का एक पत्र निकाला जिसमें जीवन निर्माण करने वाले और देशभक्ति से सम्बन्धित लेख होते थे। आपको यह निश्चय हो गया था कि भारत की गुलामी और भारत के युवकों को पथभ्रष्ट करने तथा देशभक्ति के संस्कारों की क्षीणता का मूल कारण मैकाले द्वारा प्रवर्तित अंग्रेजी शिक्षा है। इस कारण आपने अथक प्रयास करके और अपना सर्वस्व त्याग कर भारतीय शिक्षा पद्धति के प्रचार-प्रसार हेतु २ मार्च १९०२ को हरिद्वार के समीप गंगातट पर गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की और सर्वप्रथम अपने दो पुत्रों को उसमें प्रविष्ट कराया। आज यह विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय है। सन् १९०० से १९१७ तक आपने इसका स्वयं संचालन और निरीक्षण किया।


      १० अप्रैल १९१७ को आपने संन्यास ग्रहण कर लिया और मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानन्द बन गयेउसके बाद आप पूर्णतः राष्ट्रीय कार्यक्रमों और समाजसुधार में लग गये |


      'रोलट कानून' के आधार पर जब पंजाब में मार्शल ला लागू करके देशभक्तों का दमन किया गया तो आपने ३० मार्च १९१९ को दिल्ली में उसके विरोध में प्रभावशाली और ऐतिहासिक जुलूस निकाला। चांदनी चौक बाजार में आपके नेतृत्व में जुलूस आगे बढ़ रहा था। घण्टाघर के पास अंग्रेजी फौज संगीन लिये रास्ता रोके खड़ी थी। जुलूस के पास आने पर अंग्रेज अधिकारी ने चेतावनी देते हुए कहा-'वहीं रुक जाओ। यदि आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिया जायेगा। स्वामी श्रद्धानन्द उन मतलब परस्त नेताओं में से नहीं थे जो विपत्ति में जनता को धकेलकर खुद साफ बच निकलते हैं और मारी जाती है आम जनता। वे सच्चे नेता थे। उन्होंने जुलूस को वहीं रुकने का आदेश दिया। स्वयं आगे बढ़ गये। एक साथ दर्जनों संगीने गोली चलाने के लिए तन गयी। इस वीर संन्यासी ने छाती खोलकर, सीना तानकर, निर्भीक भाव से संगीनों से छाती लगाकर कहा-


      "लो, पहले मेरी छाती में मारो गोलियां।"


      इस अप्रत्याशित वीरतापूर्ण दृश्य को देख अंग्रेज अधिकारी और सैनिक सभी हतप्रभ रह गए। जनता ने दांतों तले अंगुलियां दबा ली। स्वामी जी के इस सच्चे नेतृत्व से प्रभावित होकर अंग्रेज अधिकारी ने जुलूस को आगे जाने दिया। इस निर्भीकतापूर्ण घटना से राष्ट्रीय संग्राम के पर्दे पर आप एक महारथी के समान उभर गये। इसके बाद १९१९ के अन्त में अमृतसर में श्री मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में जो कांग्रेस का अधिवेशन हुआ उसमें स्वागत समिति का अध्यक्ष आपको ही बनाया गया था। इसके बाद कांग्रेस के साथ मिलकर अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लिया। दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर 'मिस्टर गांधी' को सबसे पहले आपने 'महात्मा' विशेषण से सम्बोधित किया था। बाद में यही विशेषण इतना प्रसिद्ध हुआ कि उनकी पहचान बन गया और विश्व में 'मिस्टर गांधी' आज 'महात्मा गांधी' के नाम से ही जाने जाते हैं|


      र एक बार पंजाब में गुरुबाग के लिए सिखों का सरकार के साथ झगड़ा हुआ। न्याय के अनुसार आपने इस मामले में सिखों का साथ दिया और अमृतसर में सिखों के पक्ष में व्याख्यान दिया। अंग्रेज सरकार ने आपके व्याख्यान को आपत्तिजनक मानकर आप पर अभियोग चलाया और एक साल की सजा सुनाई। आप खुशी-खुशी जेल गये। सरकार का विचार बदला और छह महीने बाद ही आपको रिहा कर दिया गया।


      महर्षि दयानन्द ने अपने अमरग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' में सबसे पहले सन् १८७४ में स्वराज्य का उद्घोष करके विदेशी राज्य के उन्मूलन और स्वराज्य प्राप्ति का सार्वजनिक आह्वान किया था। इससे प्रेरित होने के कारण प्रत्येक आर्यसमाजी देशभक्त होता है। उस समय भी स्वराज्य के लिए प्रयत्नशील क्रान्तिकारियों और आन्दोलनकारियों में पर्याप्त संख्या आर्यसमाजियों की थी। उनमें स्वामी श्रद्धानन्द के अतिरिक्त लाला लाजपतराय, लाला हरदयाल, भाई परमानन्द, श्यामजी कृष्णवर्मा, पं० रामप्रसाद बिस्मिल, गेन्दालाल दीक्षित, भगतसिंह, सुखदेव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अंग्रेज सरकार ने यह देखकर आर्यसमाज और आर्यसमाज के ग्रन्थों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए मुकदमा दायर किया। स्वामी श्रद्धानन्द ने इस मुकदमे की पैरवी की और आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध लगाने के अंग्रेजी सरकार के सपने चूर-चूर कर दिये।


      आपके जीवन में एक अन्य ऐतिहासिक घटना का भी रिकार्ड दर्ज है, जो अब तक नहीं टूटा है और भविष्य में भी उसके टूटने की संभावना कम है। ४ अप्रैल १९२५ का दिन था। दिल्ली की प्रसिद्ध जामा मस्जिद में नमाज के बाद मुसलमानों की एक विशाल सभा हो रही थी जिसमें मुसलमान नेताओं के भाषण हो रहे थे। उसमें मौलाना अब्दुल्ला चूड़ीवाले ने आवाज देकर कहा कि “स्वामी श्रद्धानन्द जी की तकरीर(भाषण) होनी चाहिए।" नेताओं की सहमति होते ही दो-तीन नौजवान उठे और तांगा लेकर नया बाजार से स्वामी श्रद्धानन्द को आदरपूर्वक ले आये। "अल्लाह हो अकबर" के उद्घोष के बीच स्वामी जी जामा मस्जिद के मिम्बर (वेदि) पर चढ़े और वेदमन्त्र के उच्चारण के साथ अपना भाषण दिया। इसी प्रकार ६ अप्रैल को फतेहपुरी मस्जिद में आपका भाषण देने का यह पहला अवसर था। आर्यसमाज के लक्ष्य के अनुसार स्वामी जी मुसलमानों को शुद्ध करके पुनः हिन्दू धर्म ग्रहण करवा रहे थे। उन्होंने हजारों मलकाना राजपूत तथा अन्य लोगों के शद्ध कर हिन्द बनाया। किन्तु आप कट्टर साम्प्रदायिकता के विरोधी थे। आप मुसलमानों को भी भाई समान मानकर उनका सहयोग करते थे।


      शुद्धि-कार्य से कट्टर मुसलमान आपसे रुष्ट हो गये। २३ सितम्बर १९२६ को एक दिन आप नया बाजार दिल्ली में अत्यन्त रुग्ण होने के कारण शय्या पर लेटे हुए थे। तभी एक मतान्ध मुस्लिम युवक आया और इस्लाम के सम्बन्ध में कुछ चर्चा करने की इच्छा प्रकट करने लगास्वामी जी ने कहा-"भाई, आज तो मैं बहुत रोगी हूं। तुम्हारी दुआ से जब ठीक हो जाऊंगा तब चर्चा करूंगा।" इसके बाद उसने सेवक से पानी लाने के लिए कहा। सेवक धर्मसिंह जैसे ही पानी लाने के लिए गया, पीछे से मसनद का सहारा लेकर बैठे स्वामी जी पर पिस्तौल से गोलियां चला दीं। स्वामी जी का तुरन्त प्राणान्त हो गया। हत्यारे को पं० धर्मपाल ने पकड़ लिया। उसका नाम अब्दुल रशीद था जो एक जिल्दसाज थाअदालत ने उसे फांसी की सजा दी। किन्तु एक देशभक्त और समाज सुधारक की शहादत से समाज की अपूरणीय क्षति हो गयी। 


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