अमैथुनी सृष्टि का क्रम


              भतों की उत्पत्ति के बाद पथिवी से औषधि. औषधि से अन्न. अन्न से वीर्य (वीर्य से तात्पर्य रज और वीर्य दोनों से है) और वीर्य से पुरुष उत्पन्न होता है। चाहे मैथुनी सृष्टि हो या अमैथुनी, दोनों में प्राणी रज और वीर्य के मेल से ही उत्पन्न हुआ करता है। _ मैथुनी सृष्टि में, रज और वीर्य के मिलने और गर्भ की स्थापना का स्थान, माता का पेट हुआ करता है परन्तु अमैथुनी सृष्टि में मेल


१. तत्र शरीरं द्विविधं योनिजमयोनिजं च।                                                     -वैशे० ४।२।६॥


        नोट- इस सूत्र के भाष्य में, आचार्य प्रशस्तपाद ने लिखा है कि जल, अग्नि, वायु से उत्पन्न शरीर अयोनिज होते हैं। आचार्य प्रशस्तपाद की  यह बात प्रशस्त नहीं है। लीख, गिजाई, सांप, अग्नि का मण्डूक होने पर अकाल नहीं होता। 


          २. तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: सम्भूतः आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी पृथिव्या औषधयः । औषधीभ्योऽन्नम्। अन्नाद्रेतः । रेतसः पुरुषः । (तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्द वल्ली, प्रथम अनुवाक) का स्थान माता के न होने से, माता के पेट से बाहर हुआ करता है। प्राणिशास्त्र के विद्वान् बतलाते हैं कि अब भी ऐसे जन्त पाये जाते हैं जिनके रज और वीर्य माता के पेट से बाहर ही मिलते हैं और उन्हीं से बच्चे उत्पन्न हो जाते हैं। उनमें से कुछ का विवरण नीचे दिया जाता है-


         (१) समुद्रों में एक प्रकार की मछली होती है जिसकी मादा मछलियों में नियत ऋतु में बहु संख्या में रज-कण (ove) प्रकट हो जाते हैंऔर इसी प्रकार नर मछली के अण्डकोशों में जो पेट के नीचे (with in the abdominal cavity) होते हैं, वीर्य-कण (Zoosperms) प्रादुर्भूत होने लगते हैं। जब मादा मछली किसी जगह अण्डे देने के लिए रज-कणों को, जो हजारों की संख्या में होते हैं, गिराती है (वह जगह प्रायः जल की निचली तह में रेतीली अथवा पथरीली भूमि होती है) तब उसी समय नर वहाँ पहुँचकर उन रजकणों पर वीर्य-कणों को छोड़ देता है जिससे पेट के बाहर . ही गर्भ की स्थापना होकर अण्डे बनने लगते हैं।


         (२) इसी तरह एक प्रकार के मेंढक होते हैं जो रज-वीर्यकण बाहर ही छोड़ते हैंनर मेंढक मादा मेंढक की पीठ पर बैठ जाता है जिससे मादा के छोड़ते हुए रज-कणों पर वीर्य-कण गिरते जायें और इस प्रकार मेंढकी के पेट से बाहर ही, इनके अण्डे बना करते हैं ।


        (३) एक प्रकार के कीट जिन्हें टेप वर्म (Tape worm) कहते हैं और जो मनुष्यों के भीतर पाचन-क्रिया की नाली (Human digestion canal) में पाये जाते हैं, २० हजार अण्डे एक साथ कीट देता है। एक अण्डे से जब कीट निकलता है तो उसका एक मात्र शिर हुकों के साथ जुड़ा हुआ होता है। (It consists simply of a head with hook) उन हुकों के द्वारा वे आँतों की श्लैष्मिक (Mucous membranes of the intestine) से जुड़ जाता है और उसी शिर से उसका शरीर विकसित होता है। इस प्रकार उत्पन्न हुआ शरीर अनेक भागों (Segments) में विभक्त हो जाता है वे इस प्रकार संख्या और आकार में बढ़ते जाते प्रत्येक भाग में स्त्री-पुरुष के अंग होते हैं जिनसे स्वयमेव बिना किसी बाह्य सहायता के गर्भ की स्थापना हो जाती है। कुछ काल के बाद पुराने भाग (Segments) पृथक् होकर स्वतन्त्र कीट बन जाया करते हैं। इत्यादि इन उदाहरणों से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है कि यह सर्वथा सम्भव है कि रज और वीर्य का सम्मेलन माता के पेट से बाहर हो और उस से प्राणी उत्पन्न हो सके।


             इसी मर्यादा के अनुसार अमैथुनी सृष्टि में, मनुष्य का शरीर बनाने वाले रज और वीर्य का मेल, माता के पेट से बाहर होकर वृक्षों के चौड़े पत्ते रूपी झिल्ली में गर्भ की तरह सुरक्षित रखते हुए बढ़ता हैरज और वीर्य किस प्रकार झिल्ली में आकर मिल जाते हैं, इस का अनुमान फूलों के पौधों की कार्य-प्रणाली से किया जा सकता है। फूलों के पौधे नर भी होते हैं और मादा भीनर पौधों से पक्षी वीर्य-कण लाकर, मादा पौधों के रज-कणों पर छोड़ देते हैं जिससे फूल और फल की उत्पत्ति हो जाती है। इसलिए पक्षियों को फूलों का पुरोहित (Marriage Priest of flowers) कहा करते हैं । अस्तु, जब प्राणी इस बाह्य गर्भ में इतना बड़ा हो जाता है कि अपनी रक्षा आप कर सके तब वह पत्ती रूपी झिल्ली फट जाती है और उसमें से प्राणी निकल आया करता है। इसी का नाम अमैथुनी सृष्टि है ।



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