अलाउद्दीन ने की ऐसी लूट कि लुटेरों को लुटाना पड़ा सोना

अलाउद्दीन ने की ऐसी लूट कि लुटेरों को लुटाना पड़ा सोना


विजय मनोहर तिवारी


      जलालुद्दीन खिलजी को बुरी तरह से कत्ल करने के बाद अलाउद्दीन की नजर अब दिल्ली पर थी। एक दिन वह अपने हाथी, लाव-लश्कर और देवगिरि की लूट के माल को साथ लेकर कड़ा से निकला। उसने एक खास मंजनीक बनवाई। युद्ध में काम आने वाला यह गुलेल जैसा एक ऐसा उपकरण होता था, जो बड़े पत्थरों को दूर तक मार करता था। कड़ा से दिल्ली के बीच हर दिन हर पड़ाव पर अलाउद्दीन के शिविर के सामने यह मंजनीक रखी जाती थी। जियाउद्दीन बरनी बता रहा है–


      “हर दिन हर पड़ाव पर इस मंजनीक से 5 मन सोने के सितारे लुटाए जाते थे। चारों ओर से आकर लोग वहाँ जमा होते थे और उनपर सोने के सितारों की बारिश की जाती थी। दो-तीन हफ्ते में ही यह दूर-दूर तक मशहूर हो गया कि अलाउद्दीन दिल्ली पर कब्ज़ा करने के लिए निकला है और सोना लुटा रहा है। वह फौज में सवारों की भर्ती कर रहा है।


       काम की तलाश में लोग भाग-भागकर उसके पास आने लगे। बदायूं पहुँचने तक 56,000 सवार और 60,000 प्यादों की भीड़ उसके आसपास इकट्‌ठा हो चुकी थी।” (5 मन सोना हर दिन यानी लगभग 200 किलो सोना हर दिन!)


       कड़ा से निकलने के पहले ही अलाउद्दीन ने अपने खूंखार गिरोह के खास दरबारियों को हुक्म दे दिया था कि वे नए सवारों की भर्ती पर ध्यान दें। खर्चे और पगार की कोई फिक्र न पालें। साल-महीना कुछ न देखें। बिना सोचे-विचारे धन खर्च करें।


       धन की बेतहाशा लूट का नजारा पेश करते हुए अलाउद्दीन आगे बढ़ा था। देवगिरि से मिली दौलत का नशा उसके सारे सरदारों के भी सिर चढ़कर बोल रहा था।बरन पहुँचने पर नुसरत खां नाम के एक ओहदेदार ने नमाज वाले मैदान पर ही वहाँ के लोगों को सेना में भर्ती शुरू कर दी। वह खुलेआम कहता था-


       “दिल्ली की हुकूमत हासिल हुई तो जितनी दौलत हम इस वक्त खर्च कर रहे हैं, उसकी 100 गुना एक ही साल में हासिल कर लेंगे और यदि दिल्ली हमें हासिल न हुई तो यह कहीं अच्छा है कि जो धन-संपदा हमने इतनी मेहनत से देवगिरि से हासिल की है, वह हमारे दुश्मनों के पास पहुँचने की अपेक्षा आम लोगों को प्राप्त हो जाए।“


       यह ध्यान देने वाली बात है कि लूट की दौलत इतनी अधिक मात्रा में वे ढो रहे थे कि वह एक अलग समस्या बन गई थी और दिल्ली की तरफ बढ़ते हर पड़ाव पर हज़ारों हाथी-घोड़ों का यह बोझ एक बड़ी फिक्र बन चुका था। इसके लिए जितना ज्यादा से ज्यादा मुमकिन हो लुटाना ज़रूरी था। एवज में वे लूट के लालची हमलावरों की एक बड़ी फौज बनाते हुए आगे बढ़े।


       इस तरह हम देख रहे हैं कि भारत के एक हिस्से की लूट का माल भारत के दूसरे हिस्सों को लूटने और बरबाद करने के लिए इस्तेमाल हो रहा था। फिलहाल दिल्ली पर कब्जे के लिए लूट का वही सोना पानी की तरह बहाया जा रहा था।


       इतिहास इस बारे में मौन है कि लुटेरों की इस ताज़ा फौज में कितने बाहरी मुसलमान थे, कितने हिंदू और कितने ऐसे मुसलमान, जिन्हें चारों तरफ से बढ़ती-घिरती मुश्किलों ने मुसलमान बनने पर मजबूर किया होगा या लालच में आकर वे नए रंग में रंग गए होंगे।


       दिल्ली में जलालुद्दीन खिलजी के खास दरबारियों को यह सब खबरें लगातार मिल रही थीं। अब तक जलालुद्दीन खिलजी की बीवी मलिका-ए-जहां ने अपने छोटे बेटे रुकनुद्दीन इब्राहिम को तख्त पर बैठा दिया, जबकि उसका बड़ा बेटा अरकली खां मुलतान में मन मसोसकर ही रह गया। वह दिल्ली आया ही नहीं।


      खिलजी खानदान की इस फूट की खबरों ने अलाउद्दीन को बेहद उत्साहित किया। बरनी ने जलालुद्दीन के भरोसेमंद आठ ऐसे अमीरों के नाम दर्ज किए हैं, जो पांसा पलटता देख नादान रुकनुद्दीन का साथ छोड़कर अलाउद्दीन के पास चले आए। किस कीमत पर यह समर्थन जुटाया गया, इस बारे में बरनी की रिपोर्ट- “इन लोगों को 20-20 मन और 30-30 मन सोना दिया गया। इन मलिकों और अमीरों के साथ जो सैनिक आए उन्हें तीन-तीन हजार तनके नकद दिए गए।”


     बदलते माहौल में अपनी निष्ठाएँ बदलने वाले ये अमीर और मलिक दिल्ली में आलोचनाओं के शिकार हुए। वे कहा करते थे- “शहर के लोग हम पर धोखा देने का आरोप लगाते हैं कि हम अपने आश्रयदाता के बेटे को पीठ दिखाकर दुश्मन से जा मिले हैं। उन्हें ध्यान देना चाहिए कि जलाली राज्य तो उसी दिन छिन्न-भिन्न हो गया था, जब जलालुद्दीन खिलजी किलोखड़ी के राजभवन से सवार होकर अपनी मर्जी से कड़ा गया और जानबूझकर अपने भरोसेमंद लोगों के सिर कटवा दिए। अब हम अलाउद्दीन से मिल जाने के अलावा और कर ही क्या सकते हैं?”


      बारिश के मौसम में यमुना नदी उफान पर थी। दिल्ली में दाखिल होने के लिए अलाउद्दीन को पानी उतरने तक यमुना के पार रुकना पड़ा। जब पानी कम हो गया तो लकड़ी के पुल से उसने नदी को दिल्ली की तरफ पार किया।


      दिल्ली में सुलतान के नाम पर नाममात्र का नादान रुकनुद्दीन उसके सामने टिक ही नहीं पाया। रुकनुद्दीन के हथियारबंद साथी भी आधी रात के वक्त अलाउद्दीन की तरफ जा मिले। उसके पास अपनी जान बचाकर निकल भागने के सिवा अब कोई चारा नहीं बचा था।


     वह अपनी माँ, मलिक कुतबुद्दीन अलवी और मलिक अहमद चप के साथ खजाने से सोने की कुछ थैलियाँ लेकर रातों-रात दिल्ली के गजनी दरवाज़े से निकलकर मुल्तान की तरफ भाग निकला। वह तीन-चार महीने ही दिल्ली में रह पाया। उसी रात अलाउद्दीन बदायूं दरवाज़े से दिल्ली में दाखिल हुआ। वह अगले दिन सीरी के मैदान में पहुँचा।


     पांसा पलट चुका था। अब नए सिरे से निष्ठा प्रकट करने का समय आया। दिल्ली के गणमान्य लोग उससे मिलने पहुँचे। कोतवाल समेत तमाम दरबारी किले और खजाने की चाबियाँ लेकिर हाज़िर हुए। टकसाल में उसके नाम के सिक्के ढाले गए। उसके नाम का खुत्बा पढ़ा गया।


      अलाउद्दीन ने दौलत को लुटाना यहाँ भी जारी रखा। लोगों की थैलियाँ तनके और जीतल से भर दी गईं। सैनिकों को एक साल के वेतन के साथ छह महीने का वेतन इनाम के रूप में बाँटा गया। शहर में नए निजाम की खुशी में द्वार-दरवाज़े सजाए गए। लूट के बेहिसाब बँटवारे से लोग ऐशो-आराम में डूब गए। घरों में महफिलें सजने लगीं। शराब के साथ खान-पान के रौनकदार आयोजन हुए।


       अलाउद्दीन भी भोग-विलास में मस्त हो गया। अपने समर्थन में आए लोगों को उसने जमकर इनाम-इकराम और जमीनें बाँटी। सबके अच्छे दिन आ गए थे। जलालुद्दीन की दर्दनाक हत्या अब उस जैसी दूसरी अनगिनत वारदातों में एक भूली-बिसरी घटना हो चुकी थी।


       बदले हुए माहौल में जियाउद्दीन बरनी भी बहुत खुश है, क्योंकि उसके बाप मुइदुल्मुल्क को बरन का ख्वाजा बनाया गया है। उसके चचा अलाउलमुल्क को कड़ा और अवध की अक्ता सौंप दी गई। अलाउद्दीन के हितग्राहियों में उसका परिवार भी टॉप-10 में मालामाल हस्तियों में शुमार है। इसलिए दिल्ली की सत्ता के निकट से अंदर की जानकारियों से लैस वह हमारा सबसे भरोसेमंद स्त्रोत है।


       एक साल तक दिल्ली में सब ऐशो-आराम में पड़े रहे। जैसे तगड़े मगरमच्छ भरपूर शिकार निगलने के बाद रेत पर बिना हिले-डुले धूप में पड़े रहते हैं। अलाउद्दीन की बेहिसाब लूट के किस्से देवगिरि से कड़ा-मानिकपुर और कड़ा-मानिकपुर से दिल्ली के रास्तों में सब दूर चर्चाओं में थे। उसके आसपास मौजूद नवनियुक्त लुटेरों को लूट के अगले धावे के लिए हुक्म का इंतजार होने लगा।


       दिल्ली अब पूरी तरह से दुर्दांत लुटेरों का एक सुरक्षित अड्‌डा बन गई, जहाँ से एक ही समय में अलग-अलग इलाकों को लूटने और रौंदने की मुहिम शुरू होने वाले थे। फिलहाल दिल्ली में माहौल जश्न का था। जियाउद्दीन ने उस समय की दिल्ली की खुशियों पर लिखते हुए अपनी याददाश्त पर ज़ोर डाला- “मुझे इस बात की याद नहीं है कि इससे पहले किसी भी समय में लोग इस हद तक ऐशो-आराम में मगन रहे हों।”


        धीरे-धीरे अनपढ़ और जाहिल अलाउद्दीन अपनी क्रूर असलियत पर आता है। अब जलालुद्दीन के जिंदा बचे बाल-बच्चों पर उसकी निगाह गई, जो मुल्तान में थे। उसने 40,000 सवार मुल्तान पर हमले के लिए भेजे, जो दो महीने तक मुल्तान को घेरे रहे।


        आखिरकार जलालुद्दीन के दोनों बेटे अरकली और रुकनुद्दीन, दामादों को पकड़कर अंधा बना दिया गया। अरकली खां के सभी बेटों यानी जलालुद्दीन के पोतों को कत्ल कर दिया गया। उनकी सारी दौलत और गुलामों को छीन लिया गया। एक ही वंश का एक अध्याय क्रूरता से खत्म कर दिया गया।


         हम आगे देखेंगे कि वह एक ऐसी फसल बो रहा था, जो उसे अपने ही खून से काटनी थी। अभी तो अलाउद्दीन की तूती बोल रही थी। एक ही साल के भीतर जलालुद्दीन खिलजी के खासमखास लोग जो अकूत सोने के लालच में अलाउद्दीन से आ मिले थे, अब इनकी बारी आ गई।


       अलाउद्दीन ने इन सबको गिरफ्तार करवा लिया। कुछ को कैद कर लिया गया, कुछ अंधे बनाकर छोड़ दिए गए। वफादारी के बदले हासिल सोने को इनके घरों से निकाला गया। कुछ भी नहीं छोड़ा गया। घर-बार तहस-नहस कर दिए गए। पुराने लोगों में सिर्फ तीन ही छोड़े गए। बाकी सब बरबाद कर दिए गए। उसने कुतुबमीनार के पास एक और बड़ी मीनार का काम शुरू कराया, जो उसके जीते-जी कभी पूरी नहीं बन सकी।


      अलाउद्दीन खिलजी ने 18 जुलाई 1296 को कड़ा में जलालुद्दीन का धोखे से बुलाकर कत्ल किया था। फिर वह इत्मीनान से दिल्ली के लिए रवाना हुआ और दिल्ली में उसने 21 अक्टूबर 1296 को कब्ज़ा किया। यहाँ से उसकी 20 साल की अब तक की सबसे बेरहम इस्लामिक हुकूमत का दौर शुरू होता है। दिल्ली का वह पहला कब्ज़ेदार है, जिसने देवगिरि की लूट से हासिल ताकत के बूते पर हिंदुस्तान के कोने-कोने को रौंद डाला।


      उसने गुजरात को भी देवगिरि की तरह लूटकर बरबाद किया, देवगिरि को फिर लूटा, देवगिरि की मदद से तेलंगाना की पुरातन समृद्धि को बरबाद कर डाला, उसके लुटेरे हमलावर वर्तमान तमिलनाडु के दूर-दूर इलाकों तक गए, राजस्थान में रणथम्बौर, चित्तौड़गढ़ और सिवाना में लूट और कत्लेआम के साथ जौहर के धुएँ से आसमान काला हो गया और पीछे इस्लाम की बहादुरी के नाम पर कई डरावनी कहानियाँ इंसानियत का दम घोंटने के लिए छूट गईं।


       भारत भर में हिंदुओं के दमन के लिए मुस्लिम हुकूमत के लंबे दौर में सबसे बदनाम मुगल औरंगज़ेब ने जितना नुकसान अपनी 50 साल लंबी हुकूमत में नहीं किया, उससे ज्यादा तबाही अकेले अलाउद्दीन खिलजी ने उससे 350 साल पहले दिल्ली में अपने कब्ज़े के 20 साल में ही कर डाली थी।


       लेकिन आधुनिक इतिहासकारों ने सब तरह की क्रूरताओं पर परदा डालकर उसकी बाज़ार नीतियों को आदर्श बताते हुए उसे एक कुशल शासक के नज़रिए से हमारे सामने पेश किया। हम उसे सुलतान के रूप में पढ़ते हुए बड़े हुए। जबकि उसी के समय के लेखक हमें उसकी कुछ और ही असलियत बता रहे हैं। जैसे अमीर खुसरो ने उसकी अंतहीन लूटमार के बारे में बाद में लिखा-


      “अलाउद्दीन ने हिंदू राजाओं से वह सब धन-संपत्ति, जो कि उन लोगों ने कण-कण करके राजा विक्रमादित्य के ज़माने से इकट्‌ठा कर रखी थी, अपनी तलवार के जोर पर इस तरह हासिल कर ली जैसे सूरज धरती के पानी को सोख लेता है। खजाने को इस तरह भर लिया कि न तो बुध ग्रह उसे अपनी लेखनी से लिख सकता है और न शुक्र ग्रह अपने तराजू से तौल सकता है।“


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