आयें, हम अपने घरों की ओर लौटें


आयें, हम अपने घरों की ओर लौटें


       हम भूल गये हैं कि हमारे गृहस्थ ही वह साधनास्थली हैं जहाँ मावन का निर्माण होता है। माताओं की गोद में ही राम, कृष्ण शिवा, प्रताप, दयानन्द और गाँधी का निर्माण होता है।


      कितने शोक का स्थल है कि पश्चिम की अन्धी नकल में अपनाई जा रही नई सभ्यता से हमारे वे ही परिवार टूट रहे हैं, हमारे हरे-भरे गृहस्थ उजड़ रहे हैंऐसी योजनायें और ऐसे कानून हमारे समाज पर लादे जा रहे हैं। जिससे पिता-पुत्र, माता-पुत्र, भाई-भाई, भाई-बहिन और पति-पत्नी के पवित्र और शाश्वत सम्बन्ध खण्ड -खण्ड हो रहे हैं और प्रेम की गंगा में स्नान करने की जगह वे एक दूसरे की जान के ग्राहक बन रहे हैं। पारिवारिक सौमनस्य की यह दुर्गति ! हा हन्त!!


      इतना ही नहीं वैदिक स्वर्ग (गृहस्थाश्रम) के अभिन्न अंग गैया मैया को आज भी काटा जा रहा है जिससे हमारे खान-पान आचार-व्यवहार और स्वास्थ्य एवं सदाचार पर ही चौका लग रहा है | 


      और आश्चर्य तो यह है कि यह सब हो रहा बुद्धिवाद में नामों पर, सुधार और निर्माण के नाम पर। पर हम सब जानते हैं सुख-शान्ति उतनी ही दूर हो रहे हैं। कारण स्पष्ट हैसुधार औ निर्माण के ऊँचे नारों के बीच हम अपने घरों को भूल रहे हैं-जह मेरे राम और श्याम का निर्माण हुआ था उस कौशल्या और देवकी की पावन गोद को भूल रहे हैं। घर मेरे राम और कृष्ण के निर्माण मन्दिर हैं। हम याद रखें कि यदि हमें अपने मन की रिक्ततक मिटाकर उसे सुख-शान्ति से भरना है तो हमें अपने इस वैदिक स्वर्ग-घर-की ओर वापिस लौटना ही होगा। माता और पिताका खोयक हुआ प्यार पाकर हम निहाल हो उठेंगे, पत्नी का स्नेहिल आश्रय हमारी सारी मनः क्लान्ति और क्लेद को मिटाकर हमें नव शक्ति से भर देगा, भाई और बहिन की आन्तरिक आत्मीयता ही हमें सामाजिक व्यक्तित्व, गौरव और प्रतिष्ठा प्रदान करेगी।


      इस पारिवारिक माधुर्य का प्रवेश जब हमारी सामाजिकता संगठनाओं में होगा तभी वे प्राणवान् बनेंगी और इसी पारिवारिक आत्मीयता को अन्तर में सँजोये हमारे वनस्थी और संन्यासी राष्ट्रा को सम्बल और शक्ति दे सकेंगेयुग पुरुष देव दयानन्द ने एका महान् सचाई का उद्घाटन किया है इन शब्दों में-'मुझे जीवन इसलिये कोई सच्चा शिष्य नहीं मिला, चूँकि मैंने माता-पिता प्यार का मूल्याकंन नहीं किया, उनकी कोई सेवा नहीं की।' तो हम यह भूल जायें कि गृहस्थाश्रम सिर्फ भोग का आश्रय हैनहींभोगस्थली के साथ यह योगस्थली भी है।' गृहस्थ-योग' के स्वरुप को हमें समझना होगा। इस वैदिक स्वर्ग में योग और भोग, श्रेय आस प्रेय तथा अभ्युदय और निःश्रेयस् के समन्वय रुप वैदिक धर्मदर्शन हमें होते हैं। अतिवादों से परे यह मध्यम मार्ग ही वैदिक मार्ग है | 


      इस वैदिक मार्ग को भुलाकर जहाँ मध्य काल में हमें अति अध्यात्मवादी बनाकर पलायनवादी या भगोड़ा बनाया गया- जीवन और जगत् की समस्याओं और कर्त्तव्यों से उपेक्षित किया, जिसका पुरस्कार हमें मिला-दरिद्रता और दासता, वहाँ आज हमें अति भौतिकवादी बनाकर वासना और विलास को ही जीवन लक्ष्य ठहरा कर सर्वस्व का नाश किया जा रहा है। आज नहीं तो कल हमें यह समझना ही होगा कि अतिवादों से परे मध्यम मार्ग ही शावत कल्याण मार्ग है।


 


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