आत्मा
आत्मा
न्यायदर्शन के अनुसार ज्ञान, प्रयत्न, इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख-ये छः आत्मा के गुण हैं। इन्हीं गुणों के द्वारा आत्मा को जाना जाता है। जिनमें ये गुण हैं वे सजीव व जीवनधारी हैं।
आत्मा पवित्र है। वही शरीर को पवित्र करता है। बिना आत्मा के शरीर यानि मुर्दा अपवित्र है। यह संसार भी इसलिए पवित्र है क्योंकि इसमें परमात्मा का वास है।
मनुष्य शरीर में आत्मा का निवास स्थान हृदय है। आत्मा हृदय में अणु रूप में स्थित है। परन्तु प्रभाव सारे शरीर में रहता है। जैसे दीपक एक स्थान पर होता है, परन्तु उसका प्रकाश रूप प्रभाव सारे कमरे में रहता है। आत्मा अति सूक्ष्म पदार्थ है। इतना सूक्ष्म कि-यन्त्रों की सहायता से भी उसे देखा नहीं जा सकता।
आत्मा, जल, वायु, भोजन या शरीर के छिद्रों द्वारा पुरुष के शरीर में प्रवेश करता है। वीर्य सिंचन के समय माता के गर्भाशय में स्थापित होता है। उपनिषद्कार ने ऐसा ही लिखा है।
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं,
कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पराणो,
शि न हन्यते हन्यमाने शरीरे।
(कठोपनिषद्)
अर्थ-यह आत्मा न उत्पन्न होता, न मरता है। न यह किसी कारण से उत्पन्न हुआ है, न पहले कभी हुआ था। यह अजन्मा है, नित्य है, निरन्तर है, पुरातन है। शरीर के मरने पर भी यह मरता नहीं है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥ (गीता)
अर्थ-इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती। जल इसे गला नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।
नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद्)
अर्थ-जीवात्मा न स्त्री है, न पुरुष, न नपुंसक है। जैसा जैसा शरीर पाता है, वैसा वैसा कहा जाता है।