आत्म साक्षात्कार
आत्म साक्षात्कार
मनुष्य का हृदय भावनाओं का असीम, अगाघ सागर है। इस सागर में प्रेम, करुणा, दया, ममता, क्रोध आदि विभिन्न भावनाओं की लहरें समाहित हैं। कव किस लहरका आलोड़न हृदय में होगा, साधारण परिस्थितियों पर निर्भर करता है। आम मनुष्य अर्थात् हम सब जिनकी चेतना मन के पाश से आबद्ध है, मन से ही संचालित भी हैमन की चंचलता सर्वविदित है। जैसे पवन कभी स्थिर नहीं हो सकती वैसे ही मन भी कभी स्थिर नहीं रहता (अपवादों को छोड़कर)एक इच्छा पूरी भी नहीं हो पाती कि दूसरी इच्छा मन में जन्म ले लेती है। हम सब मन की इन्हीं इच्छाओं के वशीभूत उनकी पूर्ति में जुटे-जुटे ही जीवन मुक्त हो जाते हैं। जैसे आये थे वैसे ही, बिना कुछ पाये संसार में अपने होने का कोई ठोस प्रमाण दिये बगैर ही ऐसा होता है। ऊपर चंचलता के संदर्भ में, मन की पवन से तुलना की गई हैइस संदर्भ में एक बात महत्त्वपूर्ण है जिसका उल्लेख आवश्यक है इससे मन व पवन की समानता व असमानता स्पष्ट रेखांकित होसकेंगी। “पवन के स्थिर होते ही सारी प्राकृतिक व्यवस्था लड़खड़ा जावेगी प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जावेगा।
ठीक इसके विपरीत मन की चंचलता का संबंध हमारे अस्तित्व के लिए घातक है। इसे क्रमशः नियंत्रित करनेकी प्रक्रिया का ही सर्वोच्च शिखर इसे पार जाना है ? जहाँ पहँचकर मनुष्य सभी भावनाओं के प्रभाव से मुक्त हो सदा. ....सदा, रहने वाले आनंद.....आनंद..... निरंतर आनंद की स्थिति को उपलब्ध होता है। ऐसे ही पुरुष योगी की संज्ञा से विभूषित होते हैं। यही है आत्म साक्षात्कार इस सर्वोच्च स्थिति को तो कभी कोई विरला ही पहुँच पाता है। मन को क्रमशः नियंत्रित करने की प्रक्रिया के अंतर्गत ध्यान, धारणा, जप, तप, भजन आदि उपक्रमों का मनुष्य सहारा लेता है जिसका ऊपर उल्लेख है (मन के पास कैसे हों यह एक विषद विषय है इसके कई रास्ते हैं)
वर्तमान युग अर्थ प्रधान हैअर्थ प्राप्ति के मूल केन्द्र पर ही सारे वृत्त आज बन रहे हैं। वाह्य प्रदर्शित हो रही छवि चाहे जैसी, चाहे जितनी परोपकारी देखें उसे आवरण में ढकी भावना स्वतः की आर्थिक क्षमता को जितना हो सके वढ़ाना ही है। कुछ ऐसे भी भाग्यवान पुरुष इस संसार में हुए हैं। जिन्हें विरासत में अकूत दौलत मिली साथ ही वे समस्त श्रेष्ठ भावनाओं से युक्त हृदय के साथ इस धरा पर आये। उनकी हार्दिक श्रेष्ठता व उदारता को उनसे जुड़े मित्र रिश्तेदारों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति में संलग्न कर उन्हें पूरी तरह से कंगाल कर दिया। यह सर्वमान्य सत्य है कि अकूत दौलत सामान्य सहज व ईमानदारी से नहीं कमाई जा सकती। फलतः अति समृद्ध व्यक्ति को उच्च हार्दिक क्षमता से युक्त नहीं कहा जा सकता। ऊपर जो उदाहरण दिया गया है, अति सम्पन्न, श्रेष्ठ, हार्दिक क्षमता से युक्त कुछ- व्यक्तियों का वे सर्वमान्य सत्य से हट कर अपवाद है।
सारा संसार आज अमीर-गरीव दो वर्गों में बंटा हैराष्ट्र की कुल जनसंख्या का लगभग 14 प्रतिशत भाग अमीर वर्ग का व शेष 86 प्रतिशत गरीब वर्ग का व शेष 86 प्रतिशत गरीब वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। व्यवस्था कुछ ऐसी विकृति पूर्ण है कि अमीर और अमीर हो रहे है। गरीब और गरीब।
जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं यथा शिक्षा, स्वास्थ्य व व्यवसाय के क्षेत्रों में उक्त विभाजन के अनुरुप ही स्थितियां सीमित हो रही हैं। अमीर सभी क्षेत्रों में अपनी आवश्यकता के अनुरूप जो चाहते हैं, पा रहे है । गरीब किसी तरह घिसट रहा हैं।
विश्व में यदि सही मानसिकता का विकास हो सके..धनी व समर्थ वर्ग उदारता पूर्व मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर अपने स्वार्थ की ऊंचाईयों से थोड़ा नीचे उतरकर दिखावे से पर सत्य आचरण करे तो आज भी इस संसार में चहुं और सुख, समृद्धि व आनन्द का सौरभ व्याप सकता है ।