आदर्श गृहस्थ ही सच्चा स्वर्ग


आदर्श गृहस्थ ही सच्चा स्वर्ग


      क्या आपको सचमुच स्वर्ग की तलाश है ? तब मेरी बात मानिये। मत-मतान्तरों की पगदण्डियों में उलझकर किसी काल्पनिक वर्ग के चक्कर में न पड़िये। तब सुनिये वेद माता का सन्देश-


"स्वर्ग कामो यजेत''


      -स्वर्ग (सुख) का अभिलाषी यज्ञ करे अर्थात् दूसरों को सूखी बनाये। सुख पाने के लिये दूसरों को सुखी बनाओ।' इस यज्ञ भावना की नींव पर खड़ा समाज या राष्ट्र निश्चय ही स्वर्ग होगा | 


      हाँ, सृष्टि के राजा भगवान् की यह सम्पूर्ण सृष्टि- यह सम्पूर्ण धरती ही स्वर्ग है, इसे स्वर्ग रखा जा सकता है, स्वग बनाय जा सकता है। यह वैदिक स्वर्ग सिर्फ कल्पना और मन बहलाब की चीज नहीं, किन्तु एक प्रकट सत्य है।


      परिवार हमारी प्रथम सामाजिक इकाई और प्रथम व्यावहारिक पाठशाला भी है। उपर्युक्त यज्ञ-भावना पर आधृत गृहाश्रम (आदर्श गृही जीवन) को वेद स्वर्ग मानता हैपवित्र अथर्व वेद का एक मन्त्र देखिये-


ओं। यत्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वास्वायाः।


अश्लोणा: अंगैरहुताः स्वर्गे तत्र पश्येम पितरौ च पुत्रान्॥ ॥


-अथर्व० ३।१२०॥३॥


       (यत्र) जिस अवस्था में (सुहार्दः) पवित्र हृदय वाले पुनीत विचार युक्त (सुकृतः) सुकर्मी, सज्जन, (स्वायाः तन्वा रोगम् विहाय) अपने शरीर के रोगों को छोड़कर पूर्ण नीरोग होकर (अंगैः अश्लोणाः) अंग-भंग रहित सुन्दर शरीर वाले(अहताः) शरीर-मन-वाणी की कटिलता से रहित (मदन्ति) आनन्द करते हैं। (तत्रस्वर्गे) उस स्वर्ग में हम (पितरौ) माता-पिता (च) और (पुत्रान्) पुत्रों को (पश्येम) देखें अर्थात् हमारे माता-पिता और सन्तान सदा सुखी रहें।


      वैदिक स्वर्ग की यह कैसी मनोरम झाँकी हैमहर्षि चाणक्य ने इसी वैदिक सत्य की सम्पुष्टि की है। गृहस्थाश्रम की स्वर्गीय स्थिति का चित्रण करते हुए उसकी धन्यता का वर्णन उन्होंने निम्न शब्दों में किया है-


सानन्दं सदनं सुतास्तु सुधियः कान्ता प्रियलापिनी,


इच्छा पर्ति धनं स्वयोषिति रतिः स्वाज्ञापराः सेवकाः।


आतिथ्यं शिव पूजनं पतिदिनं मिष्टान्न पानं गृहे,


साधोः सगंमुपासते च सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः


-चाणक्य नीति अ० १२।१


      जिस गृहस्थ में बृद्धिमान पुत्र हों, प्रियभाषिणी स्त्री हो, यथेच्छ धन हो, अतिथि और साधु सेवा का स्वभाव हो, ईश्वरपरायणता हो, संयम वृत्ति (अपनी स्त्री में सन्तोष) हो, नौकर आज्ञाकारी हो, मिष्ठान व ग्रहण करने योग्य अन्नपान हो, वह स्वर्ग समान गृहस्थ बहुत ही प्रशंसनीय और धन्य है। एक अन्य श्लोक में वैदिक स्वर्ग का निरुपण यों किया है-


स्वर्ग स्थितानामिह जीवलोके,


चत्वारि चिन्हानि वसन्ति देहे|


दान प्रसंगो मधुरा च वाणी,


देवार्चनं ब्राह्मण तर्पणञ्च॥


-चाणक्य नीति अ० ७।१५


      अर्थात् स्वर्ग में रहने वाले लोगों की इस संसार में चार प्रकार से जाँच की जाती है- (१) उनमें ईश्वर-भक्ति हो (२) उनके ब्राह्मणों (विद्वानों) को तृप्त करने की भावना हो (३) परस्पर माधुर्य युक्त वाणी व्यवहार हो (४) दानशीलता एवं उदारता हो। इन गुणों से युक्त नर-नारी जहाँ रहते हों वह गृहस्थ 'स्वर्ग' है। पर हमें स्मरण रहे कि जहाँ यज्ञ-भावना से पूरित गृहस्थाश्रम को स्वर्ग कहा है वहाँ स्वार्थ वृत्ति आ जाने पर यही गृहाश्रम नरक भी बन जाता है। एक अन्य लोक में महर्षि चाणक्य ने इस स्थिति का चित्रण भी किया है-


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