सप्त पदी

सप्त पदी


          विवाह संस्कार की इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधि द्वारा पति-पत्नी को गार्हस्थ्य कर्त्तव्य का शिक्षण दिया गया है। जिस प्रकार सैनिक युद्ध क्षेत्र में जाने के पूर्व कवायद सीखता है, मानो उसी प्रकार गृहस्थाश्रम रुप कर्मक्षेत्र (युद्ध क्षेत्र) में जाने के पूर्व पति-पत्नी दोनों यह कवायद सप्त पदी के रुप में करते हैंगार्हस्थ जीवन की सफलता के लिये यहाँ सात महत्वपूर्ण सूत्र दिये गये हैंसर्व प्रथम पति कहता है- 'मा सव्येन दक्षिणमतिक्राम'-अर्थात् हम गार्हस्थ्य धर्म का पालन अवश्य करना चाहते हैं किन्तु इसके लिये कभी दक्षिण = धर्म-मार्ग का अतिक्रमण = उल्लघंन नहीं करेंगे।


            (१) इषे एक पदी भव-घर में अन्नादि सभी आवश्यक सामग्री हो। पति सामग्री अर्जित करे। पत्नी उसका रक्षण करे। 


            (२) ऊर्जे द्विपदी भव-पति-पत्नी का आरोग्य नियमों का ज्ञान हो जिससे वे स्वयं स्वस्थ रहें तथा परिवार के सभी सदस्यों को स्वास्थ्य के नियमों पर चलावें। 


           (३) रायस्पोषाय त्रिपदी भव-पति 'रयि' शुद्ध साधनों से धन का उपार्जन करे, यह अत्यावश्यक है। पत्नी अपनी आवश्यकताओं का रोना रोकर अधर्म से धनोपार्जन की प्रेरणा नहीं करेगी, यदि करेगी भी तो पति या पत्नी कोई भी किसी के अधर्म सम्मत विचार का साथ देने के लिये वाध्य नहीं है।


           (४) मयोभवाय चतुष्पदी भव- सुख के लिये मिलकर यत्न करें। दूसरों को सुखी करने, अड़ोस-पड़ोस, नगर, प्रान्त और देश की सेवा- करने से, दीन-दुखियों को दान देने, निराश्रित को आश्रय देने, गिरे हुए को उठाने से ही यह सच्चा सख मिलेगा।


           (५) प्रजया पञ्च पदी भव- पाँचवा सूत्र है उत्तम सन्तान के लिये पति-पत्नी मिलकर यत्न करें। यहाँ 'प्रजा' शब्द है जिसका अर्थ है-'प्रकर्षता पूर्वकेन जायतीति प्रजाः।' दोनों मिलकर सन्तान उत्पन्न करें इतना ही नहीं सन्तान को सु-सन्तान बनाने का व्रत या दोनों लेते हैं।


           (६) ऋतवे षट्पदी भव- सन्तानोत्पत्ति में ऋतु धर्म का  पालन, आहार-विहार, खान-पान, वेश-भूषा, भाव-भाषा और शिष्टाचार आदि सभी में ऋतु अथवा अवसर के अनुकूल दोनों व्यवहार करेंगेकिससे क्या बात कब कहनी किसी समय क्या खाना, क्या पहिनना क्या विचारना और क्या करना- यह ऋतु अनुकूल व्यवहार है।


           (७) सखे सप्तपदी भव-पति पत्नी सखा हैं, मित्र हैंसहधर्मी हैं, सहकर्मी हैं। वेद पत्नी को सखा बताता है- पैर की जूती नहीं, नरक का दरवाजा नहींवह वैदिक स्वर्ग की अधिष्ठात्री देवी हैपुरुष का सबसे बड़ा सम्बल, पुरुष की पूर्णता का प्रतिमान! नारी को भी ऐसा ही भाव पुरुष के प्रति रखना है। मित्रता को अक्षुण्ण, हर समय नवीन और चटकीली बनाये रखने के लिये मित्र पर शासन न जताने के लिये कविवर बिहारीलाल जी ने निर्देश किया है-


जो चाहो चटक न घटे मैलो होय न मित्त।


रज राजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त॥


 


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