स्वामी दयानन्द का स्वर्णिम सन्देश

स्वामी दयानन्द का स्वर्णिम सन्देश


1 . मरने के पश्चात माता-पिता के नाम पर श्राद्ध करने से अच्छा है, जीवित माता-पिता की श्रद्धा से सेवा करके उन्हें तृप्त किया जाए।  


2. प्रकृति ही जीवन का आधार है। इसलिए हम प्रकृति को जितना प्रदूषित करते हैं उतना यज्ञादि के माध्यम से हम उसका संतुलन बनाने का प्रयास करें।


3. गुरु वही है, जो हमें सच्चा ज्ञान प्रदान करता है।


4. जड़ पत्थर की पूजा से ज्यादा महत्वपूर्ण चेतन जीवों का उपकार किया जाये।


5. नदी, पहाड़ तीर्थ नहीं है। सच्चा तीर्थ वहीं है, जो हमें भवसागर को पार करने की शिक्षा प्रदान करते हैं। इस दृष्टि से वैदिक ज्ञान और उसके प्रदाता वैदिक विद्वान् तथा माता-पिता ही सच्चे तीर्थ हैं।


6. दान वही श्रेष्ठ है, जिससे परोपकार होता हो। अनुपकारी अज्ञानी तथा दुर्व्यसनी को दिया दान दाता के पुण्य को नष्ट कर देता है।


7. पति-पत्नी दोनों को परस्पर एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए। शयन से पूर्व दोनों एक दूसरे का अभिवादन करें।


8. धर्म बाहय आवरण नहीं है। धर्म व्यक्ति का आंतरिक गुण है। धैर्य आदि दस गुणों को ही धर्म का लक्षण समझना चाहिए।


9. गंगा आदि नदियाँ हम सभी का उपकार करती हैं। इसे प्रदूषित करना नादानी है। नदियों में पुष्पआदि का अपशिष्ट डालकर उसका अपकार करना ही है। नदियों की पूजा उसके जल को पवित्र रखकर ही की जा सकती है।


10. शरीर का स्वस्थ रखना धर्म अंग है। शरीर ही धर्म का प्रथम साधन है। ब्रहमचर्य और संयमित जीवन तथा आचार व्यवहार ही है। प्राणायाम शरीर की ऊर्जा को बनाये रखने में मदद करता है।


11. जहाँ स्त्री का सम्मान होता है वहाँ देवताओं का निवास होता हैं। जहाँ नारी अपमानित होती है वहाँ सम्पूर्ण सत्क्रियायें निष्फल होती है


                                                           - भिलाई, प्रौद्योगिकी संस्थान,दुर्ग छत्तीशगढ़


 


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