महर्षि दयानन्द की धर्म-सम्बन्धी मान्यता

महर्षि दयानन्द की धर्म-सम्बन्धी मान्यता


          कोरे पूजा-पाठ मात्र को ही महर्षि धर्म की संज्ञा नहीं देते, वरन् महर्षि मनु के शब्दों में


वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।


एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षात् धर्मस्य लक्षणम्॥


          वेद, वेदानुकूल स्मृतियाँ, महापुरुषों का सदाचरण और सभी के साथ आत्मवत् व्यवहार ही महर्षि के निकट धर्म की कसौटी हैमहर्षि व्यास के अनुसार-


     'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्'


          वे धर्म के इस आदर्श को भी मानते हैं। अर्थात् हम दूसरों के साथ वही व्यवहार करें, जो हम अपने लिए दूसरों से चाहते हैं। महर्षि के निकट न अति आध्यात्मिकता धर्म है और न अति भौतिकता। वे महर्षि कणाद के अनुसार-


 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः'


          अभ्युदय और निःश्रेयस् अर्थात् ऐहिक और पारलौकिक (लोक और परलोक) या भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय को 'धर्म' मानते हैंधर्म चमत्कारों और अन्ध-विश्वास के पिटारे का नाम नहीं है। धर्म और विज्ञान में विरोध नहीं है। वे दोनों हाथ में हाथ मिलाकर चलते हैं।


'यस्तर्केणानसन्धत्ते स धर्मो वेद नेतर:'


          जो तर्क या बुद्धिवाद की कसौटी पर खरा उतरे वही धर्म है। 'धर्मो धारयते प्रजा' वे नियम जो व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व जीवन को धारण करते हैं, 'धर्म' है। 'धारणात् धर्म' इत्याहुः-केवल सुनने और पढ़ने से नहीं धारण करने से ही धर्म-धर्म है। जैसे-आग का धर्म अग्नित्व है और जल का धर्म शीतलता है, वैसे ही मानव का धर्म 'मानवता' है। यह मानव-धर्म ही सार्वभौमिक, सार्वकालिक धर्म है, यही सनातन धर्म है, या वैदिक धर्म है। यही विश्व धर्म है। यह मानव मात्र का एक ही है, मजहब-सम्प्रदाय अनेक हैं, जैसे-सूर्य एक है दीपक या लालटेन अनेक हैं। धर्म सृष्टि के आरम्भ से है और ईश्वर उपदिष्ट है, किन्तु मत-पन्थ मनुष्य रचित हैं। बहुत बाद में बने हैं, जैसे-सूर्य, ईश्वर निर्मित और सृष्टि के आरम्भ से है, किन्तु दीपक आदि मनुष्य रचित और बहुत बाद में बने हैं। सार्वभौमिक मानव धर्म के महर्षि मनु उपदिष्ट निम्न दस लक्षण ऋषि दयानन्द को मान्य हैं-


"धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयंशौचमिन्द्रियनिग्रहः।


 धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥"


             धर्म का बड़ा सरल और व्यापक अर्थ है-कर्त्तव्य-पालन। वर्णाश्रम धर्म का प्रयोग इन्हीं अर्थों में है। अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार विहित कर्त्तव्य का अनुष्ठान ही धर्म है, ऐसी ऋषि की मान्यता है। ...... धर्म हमें शरीर और आत्मा तथा श्रद्धा और मेधा का समन्वय भी सिखाता है।धर्म रूपी पक्षी के दो पंख हैं-अस्तिकता और नैतिकता। ये दोनों एक दूसरे के पूरक अथवा अन्योन्याश्रित हैं। अंग्रेजी के एक विद्वान् के अनुसार-"Morality is the fruit of religeon While religeon is the root of morality" 3e1fa t1ffrichaill ca 4878ft नैतिकता है जब कि नैतिकता का मूल आस्तिकता है। इस प्रकार वह आस्तिकता दो कौड़ी की है, जो मानव को नैतिक नहीं बनाती हैं। बिना आस्तिकता के नैतिकता ठहरे भी कैसे? पर साथ ही हम यह भी याद रखें कि सच्ची वेदोक्त आस्तिकता ही नैतिकता का आधार है।


 


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