जीवन-सम्बोधन

जीवन-सम्बोधन


१           दीक्षा उपसोस्तनरसि।


२           विष्णोः शर्मासि । 


१   दीक्षा-तपसोः तनू : असि ।


२    विष्णोः शर्म असि ।


१)  हे मेरे जीवन! तू (दीक्षा-तपसोः) दीक्षा और तप का (तन : असि) विस्तारक है।


२)  जीवन! तू (विष्णो:) विष्णु का (शर्म) घर, मन्दिर (असि) है।


१)  दीक्षा = स्वत: दक्ष बनकर अ-दक्ष को दक्ष बनाना। 


    तप = दीक्षित होकर दीक्षा के अाधार पर कर्मों को कोशल के साथ सम्पन्न करना।


           जीवन का उद्देश्य क्या है ? मानव को जन्म लेकर क्या करना चाहिए ? क्या मनुष्य के जीवन का उद्देश्य खाने, पीने, मौज उड़ाने के लिए है ? क्या वह अपने तक सीमित रहकर, दूसरों पर अत्याचार करके, भूख की पीड़ा से पीड़ित होने के लिए जीता है ? क्या उसके आस पास रहनेवालों के जीवन की परवाह किए बिना ही उसे जीने का अधिकार है ? नहीं। मनुष्य को अपने पासपास के सभी प्राणियों को, जो उससे सम्बन्धित होते हैं, दीक्षित करना पड़ता है । उन्हें अपने अनुकूल बनाकर जीवन की समस्त कामनाओं को पूरा करना पड़ता है एवं इस संसार को सौरभ से भर देना पड़ता है। जिस जीवन के कर्मों से पुष्प की तरह सुगन्धि नहीं निकलती वह भी क्या जीवन है ? जीवन की सरसता, उसकी मिठास में होती है और परिश्रम का फल मीठा होता है । कठोर परिश्रम जीवन का सर्वश्रेष्ठ तप है । तप अपने लिए नहीं होता वह समाज के लिए होता है । जीवन के जितने भी कर्म होते हैं अपने लिए नहीं होते । अपने लिए होने वाले कर्म भी समाज के लिए ही होते हैं क्यों कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह समाज का विरोधी होकर सुरभित जीवन जी नहीं पाएगा। मनुष्य, चाहे अन्त मुखी हो या बहिर्मुखी, दोनों दशानों में समाज उसके साथ है । वह समाज के लिए ही सारे कर्मों को करता है मानव की सामाजिक संस्कृति अपनी परम्परागों का पोषण करती है और उसी के अनुसार दीक्षित मनुष्य दक्षता प्राप्त करता है;. किन्तु जैसे जैसे जीवन की गतिविधि बढ़ती जाती है उसी दाक्षा के मूल से अपार ज्ञान-राशि एकत्र होती जाती है जिससे सामाजिक समस्यायों का समाधान उसी के संशोधनाथ होता जाता है। यह शरीर तनू-विस्तारक है यह स्वतः विस्तृत होकर मस्तिष्क एवं हृदय के माध्यम से जीवन के लिए निरन्तर अभिनव विधा का शोध करता है, उसके लिए तप करता है और दूसरों को दीक्षित करके पुनः उनके चिन्तन को आगे बढ़ाता है । इस प्रकार क्रमशः मनुष्य नबीन से नवीनतर और नवीनतर से नवीनतम तक पहुँचता है । वस्तुत: यही जीवन का रहस्य है ।


२)  इस शरीर में तब तक प्रात्मा है जब तक उसका जीवन है । प्रात्मा में प्रभु का निवास है जिसमें जो रहता है वही उसका घर है । इसलिए यह शरीर ही प्रभु का मन्दिर है। शरीर को पवित्र रखना, पापों से बचाए रखना, इसे सुरभित करना, अाहार-विहार से सात्विक बनाना, पड्-रिपुत्रों से बचाना, अर्थात इसमें रहने वाला प्रभु जिस प्रकार अानन्दित हो सके वैमा आचार-विचार बनाना ही श्रेयस्कर है । जीवन की महत्ता तभी तक है जब तक परम प्रभु का इसमें निवास है । इस शरीर को पावन बनाए बिना चेतन को छोड़कर जड़ की उपासना करना जड़ता नहीं है तो और क्या है ? ईश्वर की मूति स्थापित कर, उसका मन्दिर बनवा कर विलासभूमि बना देना कहाँ तक बुद्धिमानी है ? जो चेतन-सत्ता हमारे


                                                                                                                                                                             -वेद सविता


 


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