राम मन्दिर निर्णय का विश्लेषण

राम मंदिर निर्णय का विश्लेषण 


डॉ विवेक आर्य 


सुप्रीम कोर्ट द्वारा राममंदिर पर निर्णय से विभिन्न लोगों की प्रतिक्रिया जानने को मिली। इस लेख में उन सभी प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण किया जायेगा। 


 प्रतिक्रिया नंबर 1- हम इस फैसले से बहुत प्रसन्न है। आगे काशी और मथुरा की बारी हैं। 


विश्लेषण- यह निश्चित रूप से प्रसन्नता देने वाला निर्णय है। न्यायाधीश महोदय ने निर्णय देकर इस विवाद को समाप्त कर दिया। इस देश में हज़ारों ऐसी मस्जिदें है जिन्हें मंदिरों को तोड़कर बनाया गया था। दक्षिण भारत और गोवा आदि में अनेक गिरिजाघर भी इसी प्रकार से मंदिरों के अवशेषों पर बने हैं। अगर हर मंदिर के लिए संघर्ष करेंगे तो फैसला आने में जाने कितनी शताब्दियाँ निकल जाएगी। 1960 के दशक में तत्कालीन संसाद प्रकाशवीर शास्त्री जी ने एक विधेयक संसद में पेश किया था। इस विधेयक के अंतर्गत जो भी निर्माण मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा अथवा गिरिजाघर के अवशेषों के ऊपर हुआ हैं। उसे निरस्त आकर उसके मूल निर्माण करने वालों के पक्षकारों को दे दिया जाये। इस विधायक पर कांग्रेस और कम्युनिस्ट सांसदों के बेरुखी से चर्चा आगे नहीं बढ़ी। आज ऐसे ही एक विधेयक की आवश्यकता है।  प्रोफेसर बी.बी लाल, सीताराम गोयल सरीखे इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में ऐसी अनेक मस्जिदों का विवरण दिया है जिनका निर्माण मंदिरों के अवशेषों के ऊपर हुआ था। इन मंदिरों की पहचान कर इस समस्या का सदा के लिए समाधान होना चाहिए। सभी मंदिरों के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना संभव नहीं हैं।


प्रतिक्रिया नंबर 2- कुछ मित्रों ने अदालत द्वारा मुस्लिम पक्ष को 5 एकड़ वैकल्पिक भूमि देने पर रोष प्रकट किया। उनका कहना था कि मान लो कोई व्यक्ति किसी दूसरे की भूमि पर बलात कब्ज़ा कर ले। उस भूमि का मूल स्वामी उसे खाली कराने के लिए दशकों तक कोर्ट के चक्कर लगाए। अंत में कोर्ट मूल मालिक को मालिकाना हक़ देने के साथ कब्जाधारी को उसकी एवज़ में जमीन अलग से दे। यह कहाँ की न्यायप्रियता हुई? उल्टा कब्जाधारी को दंड देना चाहिए था। 


विश्लेषण- हिन्दू समाज की सबसे बड़ी समस्या एक ही हैं। उसके अंदर संगठन शक्ति का अभाव है और हिन्दू हितों के लिए अगर कोई संघर्ष करता है तो उसका साथ देने के स्थान पर उसका येन-केन विरोध करना उसकी आदत बन चुकी हैं। अदालत के फैसले पर निश्चित रूप से मुस्लिम समाज की एक सुर में बाबरी मस्जिद को लेकर संगठित नीति का प्रभाव दिख रहा हैं। अन्यथा वैकल्पिक भूमि देने का प्रश्न ही नहीं उठता। बहुसंख्यक होते हुए भी हिन्दुओं को अदालत में जाना पड़ा। क्यों? क्यूंकि वह जातिवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रहित के मुद्दों पर आत्मचिंतन नहीं करता। पिछले लोकसभा चुनावों का उदहारण लीजिये। उत्तर प्रदेश से बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर मुस्लिम सांसद हिन्दू समाज के पिछड़े वर्ग के वोटों के आधार पर चुनकर आया। वोट देने वालों के लिए जाति प्राथमिकता थी। ये सांसद संसद में निश्चित रूप से मुस्लिम समाज के पक्ष को मजबूती से रखेंगे और हिन्दू समाज को उतनी प्राथमिकता नहीं देंगे। इन कारणों से दशकों से चंद मुस्लिम सांसद भी संसद में मुस्लिम पक्ष को प्रभावशाली रूप में रखने, सरकार की नीतियों में परिवर्तन करने और मीडिया में अपनी बात कहने में सफल रहे हैं। जबकि संख्या बल में अधिक होते हुए भी हिन्दू सांसद अपने आपको हिन्दू हितेषी सिद्ध करने और सरकार पर हिन्दू हितों के कानून बनवाने में असफल रहे हैं। इस समस्या का एक ही समाधान है। हिन्दू समाज को जातिवाद से ऊपर उठकर संगठित होकर अपनी बात बनवाना सीखना होगा। अन्यथा कोर्ट ऐसे ही फैसले लेगा।   


प्रतिक्रिया नंबर 3- आज समाज को विकास, नौकरी, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा सुविधा आदि चाहिए।यह 21वीं सदी है। आप अभी भी मंदिर-मस्जिद के विवाद में फंसे हुए हैं। अच्छा होता कि मंदिर या मस्जिद के स्थान पर अस्पताल बनाया जाता। कम से कम लोगों को चिकित्सा सुविधा तो मिलती। 


विश्लेषण- यह कुतर्क है। इस कुतर्क को करने वाले विशेष रूप से कम्युनिस्ट मानसिकता से ग्रसित हैं। ये लोग आपको कभी हज सब्सिडी, हज़ हाउस पर अरबों रुपये खर्च करने पर यह कुतर्क देते नहीं मिलेंगे। हस्पताल बनाना अथवा स्कूल, कॉलेज खोलना अच्छी बात हैं। पर इसके लिए अयोध्या में अन्य स्थान भी उपलब्ध है। वहां क्यों नहीं खोल सकते? अयोध्या ही क्यों देश की राजधानी दिल्ली का उदहारण लीजिये। यहाँ पर अरबों रुपये की भूमि अनेक स्मारकों के अंतर्गत उपलब्ध है। जैसे जामा मस्जिद, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम, राजघाट, शांतिवन, नेहरू परिवार की समाधियां आदि। इन सबको हस्पताल और स्कूल कॉलेज आदि में क्यों नहीं बदलते। इनकी उचित प्रयोग होगा। समाज का हित होगा। ऐसे सार्थक कार्यों में जनता लोग तन-मन और धन से सहयोग भी करेगी। 


प्रतिक्रिया नंबर 4- आज के युवाओं को शिक्षा, नौकरी आदि पर ध्यान देना चाहिए। धर्म एक पाखंड हैं। मंदिर-मस्जिद ने केवल लोगों को बांटा हैं। देश में गंगा-जमुना तहजीबी का प्रचार होना चाहिए। हमें इन पचड़ों में नहीं पड़ना चाहिए। 


विशेलषण- पहली बात तो गंगा भी इस देश के हिन्दुओं की है और जमुना भी। इसलिए यह उदहारण देना ही गलत है। इस्लाम तो विदेश से इस देश में आया है जिसकी उत्पत्ति अरब में हुई थी। दूसरी बात आप धर्म और मज़हब में अंतर करना नहीं जानते। धर्म अपनी आत्मा के अनुकूल श्रेष्ठ कार्यों को करना है जबकि मज़हब किसी एक प्रवर्तक की निजी मान्यताओं को जबरन समाज पर थोपना हैं। धर्म मनुष्य समाज को जोड़ता है जबकि मज़हब उनमें दूरिया बढ़ाता हैं। विश्व इतिहास में जो भी विवाद धर्म के नाम पर हुए है उनका मूल कारण धर्म नहीं मजहब हैं। कार्लमार्क्स भी धर्म और मजहब में अंतर को समझने में विफल रहा था।  इसलिए उसने धर्म को अफीम कह दिया, जबकि मजहब को अफीम कहना था। तीसरी बात युवाओं के मार्गदर्शन को लेकर है। क्या देश की समस्यायों को सुलझाने में उनकी भागीदारी नहीं होनी चाहिए? क्या उन्हें अपना योगदान समाज हित के कार्यों में नहीं करना चाहिए।  अथवा उन्हें देश की समस्याओं के प्रति बेरुखा और अकर्मण्य रवैया बना लेना चाहिए? राजा दाहिर के काल में जब क़ासिम ने सिंध पर हमला किया था। तब अहिंसा समर्थक बुद्धों ने संसार को क्षणभंगुर कहकर युद्ध में दाहिर का साथ देने से मना कर दिया था। उनका कहना था की जीवन जीने के लिए भोजन जंगलों में ही मिल जाता हैं।  हम संसार के पचड़ों में क्यों पड़े? उनका साथ न मिलने से राजा दाहिर हार गए। बाकि इतिहास आपको ज्ञात है। नौकरी, धन, परिवार ही सब कुछ होता तो वीर बंदा बैरागी को अपना बलिदान देने की क्या आवश्यकता थी। फारुखसियर ने उसे इस्लाम काबुल करने के लिए तमाम प्रलोभन दिए। मगर बैरागी उसके किसी प्रलोभन में नहीं आया। क्यूंकि उसके लिए धर्म और कर्त्तव्य सर्वोपरि था। यही प्रलोभन भगत सिंह को अंग्रेजों ने दिया था। सरकारी मुखबिर बन जाये। शिक्षा, नौकरी, धन सब कुछ मिलेगा। मगर उन्होंने बलिदान मार्ग को नमन किया। यह ठीक है कि ये सब हमारी आवश्यकताएं है। मगर इन सबसे ऊपर धर्म और कर्त्तव्य हैं। हमारे महान पूर्वज श्री रामजी के स्मारक स्थल को मुस्लिम आक्रांताओं ने हमें नीचा दिखाने के लिए तोड़ कर मस्जिद बनाई थी। उस गलती को सुधारना आवश्यक था। जैसे तुर्की में अनेक प्राचीन गिरिजाघरों को इस्लामिक सरकार ने मस्जिदों में तब्दील कर दिया था। वैसे ही 1947 के पश्चात भारत में भी इन गलतियों को सुधारा जाना चाहिए था। आज यह गलती सही हो रही है, तो इसमें व्यवधान नहीं होना चाहिए। इसका समर्थन होना चाहिए।       


प्रतिक्रिया नंबर 5-  मुझे निजी रूप से जानने वाले कुछ मित्रों ने कहा कि आप तो आर्यसमाजी है। आप तो मूर्तिपूजा के स्थान पर निराकार ईश्वर की पूजा करते हैं। फिर आप क्यों राम मंदिर के समर्थक बने हुए हैं। आप तो वहां मूर्तिपूजा करने जायेंगे नहीं। 


विश्लेषण- राम मंदिर का मुद्दा मूर्तिपूजा का मुद्दा ही नहीं हैं। यह तो राष्ट्र स्वाभिमान और हमारे महान पूर्वजों के वैभव और गौरव का प्रतीक हैं। श्री राम को हम आर्य मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में मान्यता देते हैं। उनके जीवन चरित्र को उज्जवल एवं प्रेरणादायक मानते है। रही बात समर्थन की तो एक उदहारण लीजिये। पृथ्वीराज चौहान मूर्तिपूजक थे और जब गौरी ने हमला किया तो क्या हम गौरी के विरुद्ध चौहान का साथ यह कहकर न देते कि पृथ्वीराज मूर्तिपूजक हैं। हम उसका साथ क्यों दे? नहीं। ऐसा कहना मूर्खता होता। क्यूंकि वहां पर प्रश्न देशहित का है न की मूर्तिपूजा का हैं। ऐसे ही राममंदिर का मामला मूर्तिपूजा का मामला नहीं हैं अपितु हिन्दू समाज के स्वाभिमान का मामला हैं। हम आर्य देश और धर्महित में बलिदान देने वाली परम्परा का निर्वाहन करते हैं। मैं मंदिर बनने पर अयोध्या और मंदिर के दर्शन करूँगा, पूजा चाहे न करूँ। श्री राम के पावन और प्रेरणादायक चरित्र से प्रेरणा अवश्य लूंगा। यही हम आर्यों के विचार होने चाहिए।    


(यह लेखक की निजी मान्यताएं है। )


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