सन्ध्योपासना


सन्ध्योपासना 


        पुरुष पुगंव आर्यवीर श्री हनुमान लंका में पहुँचकर सर्वत्र माता सीता को देख चुके हैं, कहीं भी सीता के दर्शन नहीं हुएसन्ध्या का समय हो आया। महावीर हनुमान् चिन्तातुर हो उठते हैंतभी उन्हें एक नदी दीख पड़ती है और तत्काल श्री हनुमान् के मस्तिष्क में एक विचार कौंध जाता हैवे सोचते हैं कि यदि सीता माता मर चुकी तब तो सब कुछ व्यर्थ ही है पर यदि सीता जीवित हैं तो इस नदी के किनारे निश्चय ही सन्ध्या करने आयेगी। महर्षि वाल्मीकि के शब्दों में-


सन्ध्या काल मनः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।


नदी चेमां शुभ जलां सन्ध्यार्थं वरवर्णिनी।


         'सन्ध्या काल में सन्ध्या करने के लिए जानकी इस शुभ जल वाली नदी पर निश्चय ही आयेगी' (सु० का0 १४-४९)


        माता सीता की तरह ही हम पुरुषोत्तम श्री राम को भी अनेक प्रसंगों में दोनों समय निष्ठा पूर्वक सन्ध्योपासना करते हुए पाते हैंनित्य कर्मों का अनध्याय (नागा) वे प्रवास काल में भी नहीं करते। ऋषि विश्वामित्र के साथ पदयात्रा में रहते सन्त तुलसी के शब्दों में एक झाँकी के दर्शन कीजिए-


विगत दिवस गुरु आयसु पाई।


सन्ध्या करन चले दोउ भाई॥


      श्री राम-जीवन का कैसा मनोहर और प्रेरक चित्र है इन पंक्तियों में ! 'गुरु आयसु पाई' इन शब्दों में जहाँ श्रीराम की विनय-शीलता के दर्शन होते हैं वहाँ सन्ध्या करने के लिए नियम पालन में, उनकी निष्ठा भी कितनी स्पृहणीय है। वनवास काल चलते-चलते जहाँ सन्ध्या हो जाती है वहीं रुक करके सन्ध्यादि कर्म में प्रवृत्त होते और प्रातः आगे प्रस्थान करने के पूर्व लक्ष्मण और सीता सहित सन्ध्यादि नित्य कर्म करते है। हम उन्हें देख सकते हैं। ऐसे थे अनन्य ईश्वर भक्त श्री राम !


योगिराज श्री कृष्णचन्द्र जी की प्रातश्चर्या भी इस प्रसंग में दर्शनीय है। महाभारत में लिखा है-


कृत्वा पौर्वाह्निकं स्नानं शुचिरलंकृतः।


उपतस्थे विवस्वन्तं पावकं च जनार्दनः।


      अर्थात् श्रीकृष्ण शौचादि से निवृत्ति हो गये और सूर्य उपस्थान (सन्ध्या) तथा अग्निहोत्र किया। महाभारत में युधिष्ठिर महाराज की प्रातश्चर्या भी इसी प्रकार की है।


      युद्ध काल में भी हम श्रीकृष्ण को प्रति दिन प्रातः दो बजे उठकर योगस्थ हुआ पाते हैं। हस्तिनापुर जाते हुए सायंकाल होते ही मार्ग में रथ रुकवा कर वे सन्ध्या करते हैं-


अवतीर्य रथात् तूर्ण कृत्वा शौचं यथा विधिः।


रथमोचनमादित्यं सन्ध्यामुपविवेश ह उद्योग॥३-२१


        स्पष्ट है कि आर्य जाति के ये सभी महापुरुष और मान्यदेवियाँ वैदिक सन्ध्योपासना अनिवार्य रुप से करते थे। यह उपर्युक्त विवेचन से एक तथ्य यह भी स्पष्ट हो जाता है कि श्री राम कष्णादि ईश्वर नहीं हो सकते। वे महापुरुष ही थे अन्यथा उन्हें ईश्वर की उपासना की क्या आवश्यकता होती ? फिर एक बात और कि वे किसी काली भैंरों आदि की मूर्ति के उपासक नहीं थे। वे सन्ध्या अग्निहोत्र आदि पञ्च यज्ञ ही करते थे।


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