श्राद्ध तर्पण का वास्तविक स्वरूपः श्राद्ध पितरों का या मृतकों का


        जिस कर्म से विद्वान, देव ऋपि, माता-पिता सुखी हों उनकी तृप्ति तथा उनके लिये जो कर्म, सेवा श्रद्धा से किये जायें उस कर्म को तर्पण और श्राद्ध कहते हैं। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपनी पंच महायज्ञ विधि पुस्तक में इन पंच यज्ञों का फल लिखा है- आत्मोन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ कार्यों सिद्धि होती है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। यह कितना बड़ा फल है, इन पंच महायज्ञों के करने का! अर्थात् इन पंच यज्ञों के करने से मनुष्य जीवन सफल होता है ।                                                                                               इसलिए मनु महाराज ने कहा 'यथाशक्तिनहापयेत् अर्थात् प्रत्येक मनुष्य इस यज्ञ को अवश्य ही करे । इनको न करने से मनुष्य पाप का भागी होता है। ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, नृयज्ञ इन यशों में तीसरा यज्ञ पितृयज्ञ है। इसी का नाम श्राद्ध है। 


            विद्वानों तथा जीवित माता पिता की श्रद्धा से जो सेवा की जाती है उसे श्राद्ध कहते हैं। बहुत से लोग मोह तथा अज्ञानवश मृत माता -पिता का श्राद्ध करते हैं जो सर्वथा बुद्धि विरुद्ध है, क्योंकि मरने पर जीव अपने कर्मानुसार पता नहीं कहां किस योनि में जन्म लेता है। यहां किसी को खिलाया गया भोजन या दी गई वस्तु कैसे मिल सकती है?वह जीव हाथी, घोड़ा, शेर, सांप, चींटी पता नहीं किस योनि में गया। 


        इसलिए मरने पर बड़ों के नाम से श्राद्ध करना व्यर्थ तथा बहुत बड़ी भूल और अज्ञान का कार्य है। जीवित माता-पिता की सेवा श्रद्धा भक्ति से की जाये यही सच्चा श्राद्ध है। माता-पिता की सेवा से यश और पुण्य दोनों प्राप्त होते हैं। माता-पिता को सेवा से संतुष्ट करना जीवन की एक बहुत बड़ी सफलता है, पुण्य है। मरने पर उनका आशीर्वाद सन्तानों को नहीं प्राप्त हो सकता। जीवित माता-पिता ही सेवा से सन्तुष्ट होकर अपने आशीर्वाद के साथ अपना सर्वस्व सन्तान को दे जाते हैं, इसलिए जीवित माता-पिता की सेवा ही सच्चा श्राद्ध है। जिन लोगों ने जीवित माता-पिता की आज्ञा का पालन किया तथा उनकी सेवा की उनका नाम हजारों वर्ष बीतने पर भी लोग नहीं भूलते। 


          वर्तमान में अपने हिन्दू समाज में अनेक भ्रान्त प्रथाएं प्रचलित हैं। उनमें मृतकों का श्राद्ध भी एक बहुत ही विचित्र तथा भ्रान्तिपूर्ण प्रथा प्रारम्भ हो गयी हैं। वास्तविक श्राद्ध व पितर शब्दों के अर्थ के अनर्थ करके पौराणिक पंडितों ने इसे अपनी जीविका का साधन बना रखा हैअब हमें यह देखना है कि श्राद्ध तर्पण पितरों का करना है या मृतकों का?वास्तव में शास्त्र मर्यादा का पालन करना प्रत्येक मानव का धर्म है। वेदों में पितरों का श्राद्ध व तर्पण के विषय में कहा ----                  ओ३म् ! उजं वहन्ती अमृतं धृतं पयःकीलालं परिसुतम् । स्वाधास्य तर्पयत में पितॄन् ।। यजु. 2/34


     अर्थ- (पितृन) पितरों को अर्थात् उच्चकोटि के विद्वानों व सत्योपदेशकों को (तर्पयत) प्रसन्न तृप्त करो। किन-किन पदार्थों से (ऊर्ज वहन्ती अमृतं घृतम ) दूध, उत्तम अन्न । , ऋतु के ताजा फलआदि देकर स्वधास्य अपनी पवित्र कमाई से ही उनकी सेवा करो और धर्मानुकूल अर्थ के उपार्जन में दृढ़ रहो। 


-भावार्थ : इस उपरोक्त वेद मन्त्र के अर्थ पर हम ध्यान दें तो पालन व रक्षा करने वालों का नाम पितर है, अर्थात् माता पिता, गुरु आचार्य, विद्वान् आदि पूजनीय महाजनों की अपनी पवित्र कमाई से सदा सेवा करनी चाहिए उत्तमोत्तम पदार्थों से सदा उनकी तृप्ति करो इसी का नाम 'तर्पण' है और श्रद्धा से सेवा करना ही 'श्राद्ध' है। यह जान लेना आवश्यक है कि एक सेव्य, जिसकी सेवा करनी है और दूसरा सेवक जिसे सेवा करनी है, वह दोनों ही वर्तमान में हो तभी सेवा सम्भव है।       


       अतः श्राद्ध व तर्पण का सम्बन्ध जीवित पितरों से ही हो सकता है. मृतकों  से इसका सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसलिए मन, वचन, कर्म से जीवित पितरों को सुख देते रहो। जैसे हमारे पितर जन  अपनी सत्य शिक्षा देकर हमारा कल्याण करते हैं उसी प्रकार  उनकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है | 


      आजकल अविद्या, अन्धकार के कारण लोग श्राद्ध का स्वरूप ही भूल गये और माता-पिता के मर जाने पर उनको पानी देकर तर्पण और पिण्डदान तथा ब्राह्मण को भोजन कराकर श्राद्ध करते हैं। प्रायः देखा जाता है कि लोग देवता स्वरूप जीवित माता पिता की सेवा में तो उपेक्षा करते हैं और मरने पर गंगाजी में पहुंचाने को ही तर्पण व श्राद्ध मानते हैं। इसी पर किसी अनुभवी कवि ने ठीक ही कहा है | 


      जियत मात-पिता से दंगम दंगा। मरे मात पिता पहुंचाये गंगा।।


अब आप ही विचार करें। इससे क्या लाभ ? क्योंकि प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार मरने पर उत्तम, मध्यम, निकृष्ट योनि में जन्म लेता है जिसको उसी प्रकार का भोजन भगवान् अपनी न्याय व्यवस्था के अनुसार उपलब्ध कराता है। इसलिए अपने पितरों की आत्मा को शान्त व तप्त करना चाहते हो तो अपने जीवित माता-पिता व गुरुजनों की श्रद्धा से सेवा करके उन्हें तृप्त करो। यह वास्तव में सच्चा व प्रत्यक्ष श्राद्ध व तर्पण है। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने श्राद्ध और तर्पण शब्द पर अपने अमर ग्रन्थ जगद्विख्यात सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में बहुत ही सुन्दर प्रकाश डाला है।


''ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञ व सर्वदा।


नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्तिर्न हापयेत्।। मनु. 3/70


अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञश्च तर्पणम् ।


होमो देवो वलिभूतो नृपयज्ञोऽतिथिपूजनम्।। मनु. 3/70


      महर्षि लिखते हैं- दो यज्ञ, ब्रह्मचर्य में लिख आए। वे अर्थात् एक- वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, सन्ध्योपासना, योगाभ्यास, दूसरा- देवयज्ञ विद्वानों का संग, पवित्रता, दिव्य गुणों का धारण, दातृत्व, विद्या की उन्नति करना है ये दोनों यज्ञ प्रातः सायं करने होते हैं। तीसरा- पितृयज्ञ अर्थात् जिसमें देव विद्वान् ऋषि पढ़ाने वाले पितर, माता पिता आदि वृद्ध ज्ञानी और परम योगियों की सेवा करनी चाहिए। पितृयज्ञ के दो भेद हैं- एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण श्राद्ध अर्थात् 'श्रत' सत्य का नाम है श्रत् सत्यं दधाति यथा क्रियथा सा श्रद्धा, श्रद्धया सत् क्रियते तत् श्राद्धं |   जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाए उसका नाम श्राद्ध है और 'तृप्यान्ति तर्पयन्ति येन पितृन तत्तर्पणम्' जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किए जाये उसका नाम तर्पण है परन्तु यह जीवितों के लिए है, मृतकों के लिए नहीं। महर्षि की यह शिक्षा यदि हम अपने आचार विचार व व्यवहार में लायें तो हम सबका जीवन सुखी बन जाए।


      पंच महायज्ञों में पितृयज्ञ :- प्रत्येक ब्रह्मचारी व गृहस्थ का परम कर्तव्य है कि जीवित माता-पिता, दादा-दादी एवं आचार्य, गुरुजनों आदि अपने बड़ों की नित्य श्रद्धा पूर्वक भक्तिभावना से सेवा करें। जिन माता-पिता ने अनेक प्रकार से कष्ट उठा कर हमारा पालन पोषण किया, उनके ऋण से उऋण होना तो असम्भव है। जो लोग अपने इस कार्य में प्रमाद आलस्य करते हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं, अतः प्रत्येक गृहस्थ का परम कर्त्तव्य है कि वह अपने अपने जीवित माता - पिता व गुरुजनों को अपनी आत्मिक श्रद्धा द्वारा सेवा कर उन्हें तृप्त करें। इसी को नीतिकारों ने श्राद्ध कहा है और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा करने को ही तर्पण कहा है।     


      प्रायः देखा जाता है कि अविद्या अन्धकार के कारण लोग श्राद्ध तर्पण का अर्थ ही भूल गए हैं, और माता पिता के मरने पर उनकी हड्डियों को हरिद्वार, पुष्कर, गया आदि कल्पित तीर्थ स्थानों पर जाकर पानी तर्पण और पिण्डदान तथा नामधारी ब्राह्मणों को भोजन करा कर श्राद्ध करते हैं परन्तु यह सब व्यर्थ है| 


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