पुराणों के विषय में स्वामी दयानंद के विचार
*पुराणों के विषय मे स्वामी दयानन्द के विचार*
सन 1875 में महृषि दयानन्द द्वारा दिये गए पूना प्रवचन में ब्राह्मणों के बनाए निम्न श्लोक का उदाहरण देते हुए ऋषि बताते हैं:-
पठितव्यं तदपि मर्त्तव्यम। दन्त कटाकटेति किं कर्त्तव्यम।१ प्रातः काले शिवं दृष्ट्वा सर्व पापं विनश्यति।।२
१ पढ़कर भी जब मर जाना है तो दांत कटाकट करने की क्या आवश्यकता है?
२ प्रातः काल उठकर शिवलिंग का दर्शन करने मात्र से जीवन के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
स्वामी जी उपरोक्त श्लोक पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं। वाह! क्या पुरुषार्थ है। ज्ञान के बिना भोग, पुरुषार्थ और आनन्द नही है, परन्तु जहां ऊपर कही हुई भांति पुरुषार्थ की समझ है तो वहां भागवत जैसे पुराणों का जोर क्यों न होगा। यथार्थ विद्याओं के पठन पाठन को एक तरफ हटाकर पुराणों के केवल सुनने में सारे महात्म्य लाकर धर दिए हैं। प्रत्येक पुराण की समाप्ति पर उसके सुनने से क्या-2 लाभ होंगे, इसके मनमाने फल वर्णन किये हैं।
इस प्रकार धर्म बुद्धि बिगड़ जाने से लोग निर्बल और कायर हो गए। तभी तो ऐसी भ्रांति में फंस गए कि नवग्रहों से हमारी हानि होगी।। इसी आधार पर फलित ज्योतिष का आडम्बर फैलाकर उनके अनुसार ग्रहों के जाप के मंत्र बना दिये गए।
*शिवकुमार आर्य*