मॉरिशस में आर्य समाज की स्थापना के परिप्रेक्ष्य में ___ सत्यदेव प्रीतम, सी.एस.के., आर्य रत्न, सहसम्पादक

भारत से दीन-हीन भारतीय शर्तबन्द मज़दूर यहाँ लाये गये। वे सब-के-सब अनपढ़-गँवार थे। वे स्वेच्छा से नहीं आये थे। उन्हें उठाकर लाया गया था। करीब सौ वर्षों तक केवल खेतों में काम कराया जाता था। रविवार को जब मालिक गिरजाघर जाते तो उन्हें काम सौंपकर जाते। यह कहकर उनका कोई धर्म नहीं है। मालिकवर्ग और सरकार भी इस ताक में थी कि उन्हें क्रिस्च्यनधर्म में दीक्षित कर दिया जाए, जैसे गुलामों के साथ किया गया था। उनकी भाषा, उनकी संस्कृति, उनका धर्म सब मिटा दिया गया और उनके साथ बातचीत करने के लिए क्रिओली भाषा क्या बोली को जन्म दिया गया जो आज भी है।



             हमारे पूर्वजों के साथ भी यही करने को ठान लिया गया था। मोहनलाल मोहित जी अपनी पुस्तक 'आर्य सभा मॉरीशस का इतिहास' में लिखते हैं, 'सन् 1901 ई. में बोबासें में रविवार के दिन ईसाई प्रचारकों ने प्रचार रखा था। स्वर्गीय गुरुप्रसाद दलजितलाल जी और स्वर्गीय खेमलाल लाल जी उपस्थित थे। उन दोनों सज्जनों के सामने राम, कृष्ण, रामायण, महाभारत और अन्य हिन्दू देवी-देवताओं पर आक्षेप करते पर तर्कहीन होने के कारण तत्काल, वे जवाब नहीं दे सकते। दुखी मन वहाँ से वापस आते। पौराणिक धर्म चालू हो गया था। कर्मकाण्ड हो रहे थे, शिवालय बन गए थे। परीतालाब की खोज हो चुकी थी। पुजारी-पुरोहित थे, पर पंडित नहीं थे जो ईसाई प्रचारकों को जवाब दे सके। उनके सामने उनके भाइयों को क्रिस्च्यन और मुसलमान बनाया जाता। वे मूकदर्शक के समान देखते रह जाते परमपिता परमात्मा की महती कृपा हुई कि सन् 1897 में भारत के बंगाल प्रान्त से कुछ सिपाही लाये गये। उनमें कुछ स्वामी दयानंद के भक्त थे, जो अपने साथ सत्यार्थप्रकाश व संस्कार विधिलाये थे। पाँच वर्ष बाद सन् 1902 में सेवा अवधि समाप्त होने के पश्चात् भारत लौटने लगे तो उनमें से दोनों अपने सत्यार्थप्रकाश और संस्कार विधि की प्रतियाँ दे दी। दो प्रतियाँ उधर उत्तर प्रान्त के तटवर्ती गाँव में स्वाज़ी के एक सज्जन को मिलीं और दूसरा सज्जन भोलानाथ तिवारी ने अपनी प्रतियाँ हायलैण्ड निवासी भिखारी सिंह को दीं। उन्होंने अपनी प्रतियाँ श्री खेमलाल लाला को सुपुर्द कर दीं। श्री लाला जी को मानो एक मार्गदर्शक मिल गया। श्री खेमलाल लाला अपने मित्र श्री दलजीतलाल और श्री गोपाल जगमोहन के साथ मिलकर दोनों ग्रंथ पढ़ने लगेउन्हें लगा कि वे अब क्रिस्च्यन पादरियों के प्रश्नों के जवाब दे सकेंगे सत्यार्थप्रकाशकी सहायतासे और थोड़े ही समय पश्चात्वे आर्यसमाज स्थापना की बात सोचने लगे।


          भारत वर्ष के औद्योगिक शहर बम्बई में भी स्थापना से पहले कुछ ऐसी ही बातें हुई थीं। सन् 1869 के ऐतिहासिक काशी शास्त्रार्थ बम्बई के श्रीजयकृष्ण वैद्य अद्वैतवादी और लक्ष्मीदासखेमजीवल्लभचारी के भाईधर्मशी उपस्थित थे। ये दोनों ही स्वामी जी के विद्या और तपोबल देखकर प्रभावित हो गए थे। उन्होंने स्वामीजी को बम्बई आने को आमंत्रित किया। उन दिनों बम्बई प्रान्त में वैष्णव मत का दबदबा था। वे दोनों सोचते थे कि स्वामी जी उन वल्लभमत को गोसाइयों को उत्तर दे सकेंगे। बम्बई में पहले से ही एक वेद-धर्म सभा स्थापित थी, जिसके प्रमुख कार्यकर्ता वेही लोग थे, जिन लोगों ने स्वामी जी को बम्बई आने की व्यवस्था की थी। वे अपने आन्दोलन को स्वामी जी के सहयोग से सबल बनाने का विचार रखते थे।


        वेद-धर्म सभा के अलावा प्रार्थना सभा भी थी। बम्बई के ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासभा में ही सम्मिलित थे। उस समय भारत में चारों तरफ़ सुधार की हवा बह रही थी। पर उन सुधारकों में पाश्चात्य प्रभाव अधिक था। कोई तो वेद को अपौरुषेय मानने को तैयार ही नहीं थे, जबकि स्वामीजी को वेदों को अपौरुषेय मानने में अटल विश्वास था।


   अप्रैल सन् 1875 में बम्बई में आर्यसमाज की स्थापना करते वक्त पाश्चात्य प्रभाव से प्रभावित लोगों को सहयोग प्राप्त हुआइसलिए देखते हैं कि आर्यसमाज को ऊपर आने में कुछ समय लगा। जब स्वामीजी 1877 में पंजाब की राजधानी लाहोर में आये तो कुछ ऐसे लोग मिले जिन्हें स्वामी दयानंद ने प्रभावित कर दिया था, जिनमें गुरुदत्त विद्यार्थी, लालाजी लाजपत राय, बैरिस्टर मुंशीराम, हंसराज आदि। अगर ये लोग नहीं आते तो आर्य समाज को आगे बढ़ने में कुछ और समय लगता।आखिर स्वामी जीनेही आर्यसमाज के दस नियम निश्चित किये, जिन्हें आजदुनिया भर के आर्यसमाजमानते हैं, जो सत्यार्थप्रकाश पढ़ने के बाद खेमलाल लालाजी एवं दलजीतलाल आदि लोगों ने कितनी बार समाज की स्थापना करने का प्रयास किया, पर हर बार असफल हो जाते। (मॉरिशस में बैरिस्टर मणिलाल मगनलाल डॉक्टर ने पोरलुई में बिधिक्त आर्यसमाज की स्थापना 8 मई 1911 में की थी।) यदि अन्त में मणिलाल डॉक्टर एवं डॉ. चिरंजीव भारद्वाज का सहयोग एवं सहायता नहीं मिलती तो सफल होने में और कितना समय लगता, यह कहना सहज नहीं है। मणिलाल और डॉ. चिरंजीवके जाने के बाद मॉरीशस आर्यसमाज को चंद अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का सहयोग प्राप्त हुआ, जैसे मास्टर रामशरण मोती, भोला मास्टर, काशीनाथ किष्टो आदि।                                              स्वामी जी जब जहाँ भी आर्यसमाज की स्थापना करते तो माँग करते कि सत्संग के अलावा पाठशाला खोली जाय, पत्र निकाला जाए । स्थापित होते ही मॉरीशस आर्यसमाज ने कन्या पाठशालाएँ खोलने लगा और पत्र तो हिन्दुस्तानी के प्रेस में निकालना आरंभ कर दिया था। इसीलिए तो मणिलाल ने भी मॉरीशस छोड़ते हुए अपना प्रेस आर्यसमाजको दे दिया था। शुद्धवैदिक-धर्म की भावना से ओत-प्रोत हैं।


 


 


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