मनुस्मृति मेंं धर्म की महिमा

मनुस्मृति में धर्म की महिमा
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_वैदिक साहित्य में धर्म की बहुत महिमा बताई गई है। मनु महाराज ने लिखा है_―


      नामुत्र हि सहायार्थं पितामाता च तिष्ठतः ।
न पुत्रदारं न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः ।। ( मनु० ४. 239 )



परलोक में माता, पिता, पुत्र, पत्नी और गोती (एक ही वंश का) मनुष्य की कोई सहायता नहीं करते। वहाँ पर केवल धर्म ही मनुष्य की सहायता करता है।


     एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते ।
एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ।।( मनु० ४.२४० )



जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है। अकेला ही पुण्य भोगता है और अकेला ही पाप भोगता है।


     एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः ।
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति ।।( मनु० ८.१७ )



धर्म ही एक मित्र है जो मरने पर भी आत्मा के साथ जाता है; अन्य सब पदार्थ शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाते हैं।


      मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।।( मनु० ४.२४१)


सम्बन्धी मृतक के शरीर को लकड़ी और ढेले के समान भूमि पर फेंककर विमुख होकर चले जाते हैं, केवल धर्म ही आत्मा के साथ जाता है।


     धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम् ।
परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम् ।।( मनु० ४.२४३)


जो पुरुष धर्म ही को प्रधान समझता है, जिसका धर्म के अनुष्ठान से पाप दूर हो गया है, उसे प्रकाशस्वरूप और आकाश जिसका शरीरवत् है, उस परमदर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है।


_धर्म के आचरण पर  मनु महाराज ने बहुत बल दिया है―_


    अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम् ।
हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते ।।(मन०४.१७०)


जो अधर्मी, अनृतभाषी, अपवित्र व अनुचित रीत्योपार्जक तथा हिंसक है, वह इस लोक में सुख नहीं पाता।


    न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।
अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम् ।।(मनु०(४.१७१)


धर्माचरण में कष्ट झेलकर भी अधर्म की इच्छा न करे, क्योंकि अधार्मिकों की धन-सम्पत्ति शीघ्र ही नष्ट होती देखी जाती है।


      नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव ।
शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ।।(मनु० ४. १७२)


संसार में अधर्म शीघ्र ही फल नहीं देता, जैसे पृथिवी बीज बोने पर तुरन्त फल नहीं देती। वह अधर्म धीरे-धीरे कर्त्ता की जड़ों तक को काट देता है।


      अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।
ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ।।( मनु० ४.१७४)


अधर्मी प्रथम तो अधर्म के कारण उन्नत होता है और कल्याण-ही-कल्याण पाता है, तदनन्तर शत्रु-विजयी होता है और समूल नष्ट हो जाता है।


     धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।(मनु० ८.१५)


मारा हुआ धर्म मनुष्य का नाश करता है और रक्षा किया हुआ धर्म मनुष्य की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए, ऐसा न हो कि कहीं मारा हुआ धर्म हमें ही मार दे !


      वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् ।
वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत् ।।(मनु० ८.१६)


ऐश्वर्यवान् धर्म सुखों की वर्षा करनेवाला होता है। जो कोई उसका लोप करता है, देव उसे नीच कहते हैं, इसलिए मनुष्य को धर्म का लोप नहीं करना चाहिए।


     चला लक्ष्मीश्चला प्राणाश्चलं जीवितयौवनम् ।
चलाचले हि संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।


धन, प्राण, जीवन और यौवन―ये सब चलायमान हैं। इस चलायमान संसार में केवल एक धर्म ही निश्चल है।


     तस्माद्धर्मं सहायतार्थं नित्यं संचिनुयाच्छनैः ।
धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम् ।।(मनु० ४.२४५)


अतः मनुष्य को अपनी सहायता के लिए धर्म का सदा सञ्चय करना चाहिए, क्योंकि धर्म की ही सहायता से मनुष्य दुस्तर दुःख-सागर को तर सकता है।


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