मनुस्मृति के महत्वपूर्ण उपदेश

मनुस्मृति के महत्वपूर्ण उपदेश
कृष्ण चंद्र गर्ग
भाग १


1. विद्वद्भिः सेवितः सद्भिः नित्यं अद्वेषरागिभिः। हृदयेन अभ्यनुज्ञातः यो धर्मः तं निबोधत।। (1-120)
अर्थ - जिसका सेवन रागद्वेष रहित विद्वान लोग नित्य करेें, जिसको हृदय अर्थात् आत्मा से सत्य कर्तव्य जानें वही धर्म माननीय और करणीय है।


2. कामात्मता न प्रषस्ता न च एव इह अस्ति अकामता। काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगष्च वैदिकः।। (1-121)
अर्थ - क्योंकि इस संसार में अत्यन्त कामात्मता और निष्कामता श्रेष्ठ नहीं है। वेदार्थज्ञान और वेदोक्त कर्म ये सब कामना से ही सिद्ध होते हंै।


3. वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतत् चतुर्विधं प्राहुः साक्षात् धर्मस्य लक्षणम्।। (1-131)
अर्थ - वेद, स्मृति, सत्पुरुषों का आचार और अपने आत्मा के ज्ञान से अविरुद्ध प्रियाचरण - ये चार धर्म के लक्षण हैं अर्थात् इन्हीं से धर्म लक्षित होता है।


4. न उच्छिष्टं कस्यचित् दद्यात् च एव तथा अन्तरा। न च एव अति अषनं कुर्यात् न च उच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्। (2-31)
अर्थ - न किसी को अपना जूठा पदार्थ दे और उसी प्रकार न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किए पश्चात् हाथ मुख धोये बिना कहीं इधर-उधर जाए।


5. इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु अपहारिषु। संयमे यत्नम् आतिष्ठेत् विद्वान् यन्ता इव वाजिनाम्। (2-63)
अर्थ - जैसे विद्वान सारथी घोड़ों को नियम मे रखता है वैसे मन और आत्मा को खोटे कार्यों में खंेचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करे।


6. पूर्वां संध्यां जपन् तिष्ठन् नैषम् एनः व्यपोहति। पष्चिमां तु समासीनोे मलं हन्ति दिवाकृतम्।। (2-77)
अर्थ - प्रातःकालीन संध्या में बैठकर जप करकेे रात्रिकालीन मानसिक मलीनता या दोषों को दूर करता है। सायंकालीन संध्या करके दिन में संचित मानसिक मलीनता या दोषों को नष्ट करता है।


7. न अरुंतुदः स्यात् आर्तः अपि न परद्रोहकर्मधीः। यथा अस्य उद्विजते वाचा न अलोक्यां ताम् उदीरयेत्।। (2-136)
अर्थ - मनुष्य स्वयं दुखी होता हुआ भी किसी दूसरे को कष्ट न पहुचाने, न दूसरे के प्रति ईष्र्या या बुरा करने की भावना मन में लाये। जिस वचन से कोई दुखी हो ऐसी वाणी न बोले।


8. स्वभाव एष नारीणां नराणां इह दूषणम््। अतः अर्थात् प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपष्चितः।। (2-188)
अर्थ - इस संसार में यह स्वाभाविक ही है कि स्त्री पुरुषों का परस्पर के संसर्ग से दूषण हो जाता है - दोष लग जाता है। इस कारण से बुद्धिमान व्यक्ति स्त्रियों के साथ व्यवहारों में कभी असावधानी नहीं करते।


9. मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्त आसनः भवेत्। बलवान् इन्द्रियग्रामः विद्वांसम् अपि कर्षति।। (2-190)
अर्थ - माता, बहिन अथवा पुत्री के साथ भी एकान्त आसन पर न बैठे या न रहे। शक्तिषाली इन्द्रियां विवेकी व्यक्ति को भी खींचकर अपने वष में कर लेती हंै।


10. पितृभिः भ्रातृभिः च एताः पतिभिः देवरैः तथा। पूज्या भूषयितव्याः च बहुकल्याणाम् ईप्सुभिः।। (3-55)
अर्थ - पिता, भाई, पति और देवर को योग्य है कि अपनी कन्या, बहन, स्त्री और भौजाई आदि स्त्रियों की सदा पूजा करें अर्थात् यथायोग्य मधुरभाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखें। जिनको कल्याण को इच्छा हो वे स्त्रियों को क्लेष कभी न देवें।


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