महर्षि दयानंद सरस्वती स्वामी विवेकानंद और सांप्रदायिकता



  1. महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द  और  साम्प्रदायिकता
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    - स्वामी (डॉ) सत्यप्रकाश सरस्वती


कुछ मामलों में विवेकानन्द एक परम्परावादी हिन्दू प्रतीत होते हैं। वे हिन्दुओं के मनों से अन्धविश्वास समाप्त करने के लिये वेद पाठशाला या वैदिक कॉलेज स्थापित करने को बहुत उत्सुक थे। परन्तु उनकी वेद सम्बन्धी अवधारणा ऋषि दयानन्द व प्राचीन ऋषियों की अवधारणा से अलग थी। दयानन्द एवं विवेकानन्द दोनों ही अध्यात्म विद्या और धर्म  को जोड़ना चाहते थे। दयानन्द ने भारत में विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधियों का मानवमात्र के कल्याण के लिये मिलकर काम करने का आह्वान किया। दयानन्द मुसलमानों, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों और हिन्दुओं को समान रूप से प्रेम करते थे। वे चाहते थे कि सब लोग एक गोल मेज पर बैठकर अपने मतभेदों को भुलाकर एक साझा कार्यक्रम तय करे। विवेकानन्द का उद्देश्य भी यही था, परन्तु इसका हल निकालने के स्थान पर उनका मानना था कि तुम मेरा अन्धविश्वास सहन करो, मैं तुम्हारा अन्धविश्वास सहन करूँ। तुम मेरे पाखण्ड एवं कपट को सहन करो, मैं तुम्हारे पाखण्डों और छल-कपट के विरुद्ध नहीं बोलूँगा। यहाँ दयानन्द विवेकानन्द से अलग है। अत: कुछ वर्ग के लिये विवेकानन्द अधिक मान्य हैं अपेक्षाकृत स्वामी दयानन्द के। और हम जानते हैं कि सत्य एक ऐसी वस्तु है जो समझौतों और तुष्टीकरण को स्वीकार नहीं करती। परिणामस्वरूप उनकी जय जयकार है जो सत्य के लिये ही जीते हैं और सत्य के लिये ही मरते हैं।


स्वामी दयानन्द हर प्रकार की मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं। विवेकानन्द भी मूर्तिपूजक नहीं थे, परन्तु जहाँ दयानन्द इस बुराई का विरोध करने का साहस रखते थे, विवेकानन्द में यह बात नहीं थी। उनके गुरु स्वयं काली के मन्दिर के मुख्य पुजारी थे। अतः स्पष्ट है कि वे मूर्तिपूजा का समर्थन करते थे। एक मूर्तिपूजक होने पर भी यदि उनके गुरु रामकृष्ण एक महान् व्यक्ति हो सकते थे, जैसे कि वे थे तो फिर कोई मूर्तिपूजा की निन्दा कैसे कर सकता था? उसी तरह फिर मैं क्यों तर्क न करूँ? लगातार धूम्रपान करने वाला चर्चिल वर्तमान युग के अंग्रेज इतिहास के एक अनुपम व्यक्तित्व का स्वामी हो सकता है, तो मैं तम्बाकू सेवन की निन्दा क्यों करूँ? स्वामी दयानन्द को स्पष्ट दीख रहा था कि मूर्तिपूजा स्वयं में केवल एक ही बुराई नहीं है, परन्तु इसके साथ तो अनेकों बुराईयाँ गुंथी हुई हैं और यह तथाकथित हिन्दुत्व पर एक कलंक की तरह है। मूर्ति-पूजक और हिन्दू दोनों समानार्थी हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) बर्मा में 'सनातन धर्म स्वयं सेवक संघ' के नाम से कार्य करता है, क्योंकि सनातनधर्मी मूर्ति पूजक होता है। बौद्ध बर्मा में ऐसे ही तो हैं। (मूर्तिपूजा उन्हें आपस में जोड़ने का एक साधन है) विवेकानन्द भी जानते थे कि मूर्तिपूजा हिन्दुओं को विभाजित एवं पतित करती है। यह हमारे देश भारत को भी ऐसा ही करती है। परन्तु भारत तथा बौद्ध देशों में इसके विरुद्ध बोलने के लिये साहस की आवश्यकता है। महात्मा बुद्ध मूर्तिपूजक नहीं थे, उनकी मृत्युशैया के निकट शोकाकुल अवस्था में जब उनके अनुयायी पहुँचे और उनसे पूछा कि अब वे किस के पथप्रर्दशन पर विश्वास करेंगे तो बुद्ध ने कहा था, "मेरी शिक्षाओं का संग्रह करो, मेरे द्वारा बोले गये शब्दों का संग्रह करो वे ही अब तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे।" उनके शिष्यों ने इन सबका विशाल संग्रह किया और अब हमारे पास बुद्ध के वचनों एवं शिक्षाओं का उत्तम संग्रह है।


लोग दूर-दूर तक उनकी शिक्षाओं के प्रचार के लिये गये। और उनके सम्मान हेतु उनकी छोटी-बड़ी प्रतिमाएँ भी खड़ी की, परन्तु खेद है कि लोग उनके शान्ति, प्रेम और परोपकार के सन्देशों को तो भूल गये और उनकी मर्तियों की पूजा करने लगे। वह बौद्धधर्म का एक काला दिन था, और भारत में बौद्धों से इतर मूर्ख लोगों ने उनकी देखा-देखी मूर्तिपूजा आरम्भ कर दी। बस अन्तर केवल यह था कि मूर्तिपूजा तो थी पर मूर्ति अलग थी। जैनियों ने भी ऐसा ही करना प्रारम्भ कर दिया। जैन और बौद्ध दोनों नास्तिक हैं। उनका ईश्वर विश्वास और उनकी पूजा दोनों निरर्थक हैं। इसीलिये उन्होंने अपने-अपने धर्म के संस्थापकों की मूर्तियाँ खड़ी करनी आरम्भ कर दी, इसमें कुछ सान्त्वना और विश्वसनीयता तो है। परन्तु नास्तिक भारतीयों के लिये इन मूर्तियों की पूजा में किंचित् भी तर्क-संगति नहीं है। परन्तु यह वास्तविकता है कि हिन्दू मूर्तिपूजा में मूर्खता की सभी हदें पार कर गया। लिंग पूजा से लेकर राम-कृष्ण की मूर्तियों तक, शिव से लेकर काली और गणेश तक, पीपल से तुलसी तक, जगन्नाथ से हनुमान तक, साँप से लेकर चौराहे तक, प्रतीकात्मक से ऐतिहासिकता तक, आदिम जन-जातीय से मानवशास्त्रीय तक, हिन्दुओं की मूर्तिपूजा का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है। केवल अकेले स्वामी दयानन्द ने इस बुराई की गम्भीरता को समझा और उन्होंने साहस पूर्वक इसका विरोध किया।


विवेकानन्द एक विशेष प्रकार के आस्तिक थे। एक ओर उन्हें महान् दार्शनिक शंकराचार्य के अद्वैतवाद में बौद्धिक सान्त्वना मिली, यह वही शंकर थे जिन्होंने भारत से बौद्धधर्म का उन्मलन किया था। विवेकानन्द के लिये बुद्ध ईश्वर थे। जैसा हमें बताया गया है [विवेकानन्द के अनुसार] - कहीं बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा था कि वे 400-500 वर्ष बाद पुनः मानव रूप में आयेंगे। और कौन जानता है कि वे ही ईसा के रूप में आये होंगे और फिर मुहम्मद के रूप में आये हों। विवेकानन्द को इस बात का बड़ा विश्वास था। उनके लिये बुद्ध एवं ईसा दोनों ईश्वर हैं, दोनों सर्वोच्च हैं। आज जैसा कि वे कहते हैं यह संसार दोनों के बीच बँटा हुआ है। मनुष्य आखिर मनुष्य ही है, वह एक ऐसे ईश्वर को नहीं पूज सकता जो मानव के रूप में न हो ऐसा विवेकानन्द कहते हैं। सर्वोच्च सत्ता (सच्चिदानन्द) को कोई भी प्रार्थना समर्पित नहीं की जा सकती। एक व्यक्ति केवल उसकी ही पूजा कर सकता है जो पृथ्वी पर मानव के रूप में आये ऐसे विवेकानन्द के विचार हैं। शायद इनसे पूर्व कोई पूजा नहीं थी, न सन्ध्या-उपासना। मैं विवेकानन्द के साथ तर्क नहीं करना चाहता। वह हिन्दुत्व की अहिन्दुओं के सामने ऐसी तस्वीर पेश करते हैं। वे कृष्ण, बुद्ध एवं ईसा को समानार्थी एवं समतुल्य के रूप में एक ही बताते हैं। उनके आस्तिकता सम्बन्धी विचार वेद, उपनिषद् पर आधारित नहीं हैं, न शंकर, न रामानुज के अनुकूल, न वैष्णव, न शैव के अनुसार, न योग और सांख्य पर आधारित है। कृष्ण, बुद्ध एवं ईसा की विशिष्ट मण्डली में वे मुहम्मद को शामिल नहीं करते, मुहम्मद इनसे निम्न स्तर के हैं। वह केवल सन्देशवाहक हैं। विवेकानन्द की ज्ञान मीमांसा का अनुसरण करना आसान नहीं है। आप उनका अध्ययन उनके तरीके से ही कर सकते हैं। मैं यह तो नहीं कहँगा कि अपने तर्कों में वे परस्पर विरोधी हैं, परन्तु वे वह हिन्दू नहीं हैं जिसे आजकल के हिन्दू महिमा मण्डित कर रहे हैं। और इसीलिये विवेकानन्द हिन्दुओं को, ईसाई या मुस्लिम बनने नहीं बचा सकते। विवेकानन्द ईसा मसीह को प्रेम करते हैं, आदर भी करते हैं, वे ईसाइयों को भी प्रेम करते हैं, परन्तु किसी भी अवस्था में ईसाई नहीं हैं और न ही वे किसी भी कीमत पर ईसाई बनना पसन्द करेंगे। परन्तु यदि कोई हिन्दू ईसाई बनता है तो उन्हें इसमें कोई आपत्ति भी नहीं है। आपको विवेकानन्द को उनके दृष्टिकोण से ही पढ़ना होगा।


महाभारत के बाद का भारत का इतिहास पतन और विखण्डन का इतिहास है। दयानन्द के अनुसार पतन कुछ शताब्दियों पूर्व ही शुरु हो गया था। भगवान्‌ कृष्ण भी भारतीयों को उनमें फैले हुये सड़न से नहीं बचा पाये। एक प्रकार से अर्जुन सही था जब वह गीता में यह कहता है कि युद्ध के भयंकर परिणाम होंगे ! श्रीकृष्ण जैसे व्यक्तित्व का स्वामी भी असफल हो गया और वे एक निराश व्यक्ति के रूप में मरे। हमें बताया गया कि उनकी हत्या उनके अपने लोगों द्वारा ही की गई। कौरव नष्ट हो गये और पाण्डव जीत कर भी हार गये। महाभारत युद्ध हमें कलिंग युद्ध का स्मरण दिलाता है जिसमें अशोक विजयी रहा। विजयी पाण्डव सर्वनाश के लिये उत्तरदायी रहे और अपने कार्यों से दुःखी होकर वे अपना बलिदान देने के लिये हिमालय पर चले गये।


[स्रोत  : Flights Around the World, वैदिक-पथ का अक्टूबर 2016 का अंक, हिन्दी अनुवाद : श्री आर्यमुनि वानप्रस्थ मेरठ। प्रस्तुति : भावेश मेरजा]


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