महान वैदिक धर्म प्रचारक रक्त -साक्षी पंडित लेखराम आर्य मुसाफिर

“महान वैदिक धर्म प्रचारक रक्त-साक्षी प. लेखराम आर्यमुसाफिर”
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पं. लेखराम आर्यमुसाफिर के नाम से आर्यसमाज का प्रत्येक अनुयायी परिचित है। 6 मार्च, सन् 1897 को उनका लाहौर में वैदिक धर्म की वेदी पर बलिदान हुआ था। उनके बलिदान का कारण था कि वह वैदिक धर्म के प्रचारक तथा व आर्य हिन्दुओं के रक्षक थे। यदि अविभाजित पंजाब सहित कहीं किसी वैदिक धर्म के अनुयायी का धर्मान्तरण होता था तो पं. लेखराम जी वहां पहुंच कर धर्मान्तरण करने वाले अपने भाईयों को समझाते थे और उन्हें अपने धर्म की विशेषताये बताकर धर्मान्तरण न करने की प्रेरणायें करते थे। आपने सहस्रों लोगों को धर्मान्तरित होने से बचाया। वैदिक धर्म के इतिहास में आप सदैव अमर रहेंगे। पं. लेखराम जी का जन्म पंजाब के झेलम जिले के ग्राम सैदपुर में सारस्वत ब्राह्मण कुल में हुआ था। आपकी जन्म तिथि चैत्र महीने की सौर 8 तथा वर्ष विक्रमी 1915 है। आपके पिता का नाम महता तारासिंह था। बाल्यकाल में आपको केवल उर्दू व फारसी की शिक्षा प्राप्त हुई। आपकी यह शिक्षा आपके भावी जीवन में इस्लाम मत के ग्रन्थों का अध्ययन करने में काम आयी। अपने बाल्यकाल से आप कुशाग्र बुद्धि के बालक थे तथा उर्दू-फारसी में कविता लिखने की ओर आपका झुकाव था। आपके चाचा पंडित गंडाराम पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे। उनके द्वारा आप पुलिस विभाग में सारजेन्ट के पद पर नियुक्त हुए। आप बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे और एकादशी का व्रत रखने के साथ गुरुमुखी भाषा में छपी गीता के श्लोकों का पाठ भी नियमित रूप से करते थे। आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से पूर्व आप अद्वैतवाद अर्थात् जीव-ब्रह्म की एकता व समानता को मानते थे। आपमें वैराग्य का भाव तीव्र अवस्था में था। इन्हीं दिनों आपको लुधियाना के एक समाज सुधारक व धर्मप्रचारक पं. कन्हैयालाल अलखधारी के ग्रन्थों के अध्ययन का अवसर मिला। इससे आपको ऋषि दयानन्द और उनके समाज सुधार के कार्यों सहित वेद धर्म प्रचारार्थ आर्यसमाज की स्थापना का ज्ञान हुआ। आपने अजमेर से आर्यसमाज का साहित्य मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ मंगाकर पढ़े। इससे आपके विचार बदल गये और आप आर्यसमाज के अनुयायी व सदस्य बन गये। पं. लेखराम जी ने संवत् 1936 विक्रमी के अन्तिम भाग में सीमा प्रान्त के पेशावर नगर, जो मुस्लिम बहुल था, वहां आर्यसमाज की स्थापना की थी। पंडित लेखराम जी को धर्म विषय में कुछ शंकायें थी। इसके निवारण के लिये आपने महर्षि दयानन्द से मिलने का निश्चय किया। आप पुलिस की सेवा से एक महीने का अवकाश लेकर 17 मई, 1880 को पेशावर से अजमेर पहुंचे जहां ऋषि दयानन्द सेठ फतहमल की वाटिका में ठहरे हुए थे। इस स्थान पर आपने ऋषि दयानन्द के दर्शन किये तथा उनसे वार्तालाप वा शंका समाधान किया। यह आपकी ऋषि दयानन्द से पहली व अन्तिम भेंट थी। 


स्वामी जी के दर्शन से आपके यात्रा के सभी कष्ट विस्मृत हो गये। ऋषि दयानन्द जी के सत्य उपदेश से आपके सभी संशय भी दूर हो गये। आपने ऋषि दयानन्द से 10 प्रश्न किये और उनके उत्तर सुने। इन उत्तरों से आपका समाधान हो गया। बाद में आप अपने 7 प्रश्नों व उनके ऋषि द्वारा दिए उत्तरों को भूल गये। शेष प्रश्नों व उनके उत्तरों को स्वयं प्रस्तुत किया है। आपकी पहली शंका थी कि ब्रह्म व आकाश दोनो ंसर्वव्यापक हैं। यह दोनों व्यापक पदार्थ एक ही स्थान पर एक साथ कैसे रह सकते हैं? महर्षि दयानन्द ने एक पत्थर उठाया और कहा कि जिस प्रकार इसमें अग्नि, मिट्टी और परमात्मा तीनों व्यापक हैं उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में परमात्मा और आकाश भी व्यापक हैं। ऋषि ने कहा कि सूक्ष्म वस्तु में उससे भी सूक्ष्मतर वस्तु विद्यमान रहती है। ब्रह्म सूक्ष्मतर होने से सभी पदार्थों में सर्वव्यापक है।  पं. लेखराम जी ने लिखा है कि ऋषि से यह समाधान सुनकर मेरी तृप्ति हो गई। ऋषि द्वारा अन्य प्रश्नों को पूछने की अनुमति देने पर उन्होंने 10 प्रश्न पूछे थे। उनमें से तीन प्रश्न व उनके समाधान उन्हें याद रहे, शेष 7 प्रश्न व उनके समाधान उन्हें विस्मृत हो गये थे। ऋषि से किये 3 प्रश्न व उनके उत्तर हैं, प्रश्न-जीव ब्रह्म की भिन्नता में कोई वेद का प्रमाण बतलाइये। उत्तर-यजुर्वेद का सारा चालीसवां अध्याय जीव और ब्रह्म का भेद बतलाता है। प्रश्न-अन्य मतों के मनुष्यों को शुद्ध करना चाहिए वा नहीं? उत्तर-अवश्य शुद्ध करना चाहिए। प्रश्न-विद्युत क्या वस्तु है और कैसे उत्पन्न होती है? उत्तर-विद्युत सब स्थानों में है और घर्षण वा रगड़ से पैदा होती है। बादलों की विद्युत भी बादलों और वायु की रगड़ से उत्पन्न होती है।  


अजमेर से लौटकर पं. लेखराम जी ने ''धर्मोपदेश” नाम के एक उर्दू मासिक पत्र का सम्पादन व प्रकाशन किया। इसके माध्यम से उन्होंने वैदिक धर्म के सत्यस्वरूप व उसकी महत्ता का पठित लोगों में प्रचार किया। इसके साथ ही आप मौखिक व्याख्यान भी दिया करते थे। इसी बीच पंडित लेखराम जी को किसी अन्य थाने में स्थानान्तरित कर दिया गया। इसके पीछे उनके अधिकारियों की उन्हें परेशान करने की मन्शा भी थी। पं. लेखराम जी ने इस समस्या से स्वयं को मुक्त करने के लिये 24 जुलाई सन् 1884 को पुलिस विभाग की सेवा से त्याग पत्र दे दिया। इससे उन्हें आर्यसमाज के काम उपस्थित होने वाली सभी बाधाओं से मुक्ति मिल गई और वह पूरा समय वैदिक धर्म के लिखित व मौखिक प्रचार में व्यतीत करने लगे। इस बीच उन्होंने मुस्लिम लेखकों के वैदिक धर्म पर आक्षेपों का उत्तर लिखना भी आरम्भ किया। वह धर्म प्रचारार्थ व ऋषि जीवन की घटनाओं के संग्रह के लिये अनेक स्थानों पर जाने लगे जिससे उनका नाम 'आर्यपथिक वा आर्यमुसाफिर' पड़ गया। 


अहमदिया सम्प्रदाय के मुसलमानों के प्रवर्तक कादियां के मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी ने एक पुस्तक 'बुराहीन-ए-अहमदिया' लिखी जिसमें आर्यसमाज पर कटु आक्षेप किये गये थे। पंडित लेखराम जी ने इस पुस्तक का उत्तर 'तकजीव बुराहीन-ए-अहमदिया' नामक ग्रन्थ लिख कर दिया जो अकाट्य तर्कों से पुष्ट था। मिरजा ने दूसरी आक्षेपात्मक पुस्तक 'सुर्म-ए-चश्म आरिया' लिखी जिसका उत्तर पंडित जी ने 'नुस्ख-ए-खब्त अहमदिया' लिखकर दिया। मिरजा ने यह घोषणा भी की थी कि उसके पास ईश्वर के दूत सन्देश लाते हैं। वह अलौकिक चमत्कार दिखला सकता है। वह अपने ईश्वर से प्रार्थना कर एक वर्ष के भीतर किसी भी मनुष्य को मरवा सकता है। पं. लेखराम जी ने मिरजा की इन सब बातों का कादियां जाकर खण्डन किया व उसे निरुत्तर कर दिया। इस विवाद के बढ़ने से कुछ समय बाद पं. लेखराम जी की हत्या हुई और वह धर्म की वेदी पर बलिदान हो गये। 


पंडित जी धर्म रक्षा के कार्य को करने के लिए हर क्षण तत्पर रहते थे। कहीं धर्मान्तरण व शास्त्रार्थ की आवश्यकता हो तो पं. लेखराम जी उत्साहपूर्वक वहां पहुंचते थे और अपनी सारी शक्ति लगा देते थे। पं. लेखराम जी की विद्वता व वाक्पटुता का लोहा उनके सभी विरोधी मानते थे। वह अपनी युक्तियों से बड़े-बड़े मौलवियों तथा पादरियों को निरुत्तर कर देते थे। पादरियों का व्यवहार उनके प्रति बहुत अधिक कटु नहीं होता था। मुस्लिम विद्वान अपनी कट्टरता और तात्कालीन उत्तेजना का प्रदर्शन करते हुए मोहम्मदी तलवार की धमकियां देते थे। ऐसे आक्रमणों से पंडित जी कभी नहीं घबराये। उन्हें दी जाने वाली धमकियां का उत्तर वह यह कह कर दिया करते थे कि संसार में धर्म शहीदों के रुधिर से ही फूले फले हैं और मैं अपनी जान हथेली पर लिये फिरता हूं। पंडित जी ने बहुत से सनातनधर्मी सम्भ्रान्त व समृद्ध कुलों के युवकों को धर्मभ्रष्ट होने से बचाया था। मुजफफरनगर जिले के जाट रईस चौ. घासीराम और सिन्ध के रईस दीवान सूरज मल व उनके दो पुत्रों को भी उन्होंने धर्म भ्रष्ट होने से बचाया। 


आर्यपथिक पंडित लेखराम जी एक निःस्पृह, साधु, त्यागी और सन्तोषी प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे। आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब से वह मात्र 25 रुपये लेकर रात दिन वैदिक धर्म की सेवा में व्यस्त रहते थे। बाद में उनका मासिक वेतन रात दिन उनके पुरुषार्थ को देखकर बिना उनके कहे 25 से बढ़ाकर 35 रुपये कर दिया गया था। उनका गृहस्थ जीवन सभी उपदेशकों व ब्राह्मण वर्णस्थ बन्धुओं के लिए अनुकरणीय था व है। पंडित जी शास्त्र पर्णित रुद्रसंज्ञक ब्रह्मचारी की अवस्था को प्राप्त करके 36 वर्ष की आयु में विक्रमी संवत् 1950 के ज्येष्ठ महीने में मरी पर्वत के 'भन्न ग्राम' की निवासी कुमारी लक्ष्मी देवी जी के साथ विवाह किया था। विवाह के बाद आपने अपनी पत्नी को पढ़ाना आरम्भ कर दिया था। ग्रीष्म काल विक्रमी संवत् 1952 में उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नामकरण संस्कार वैदिक रीति से हुआ और बालक का नाम 'सुखदेव' रखा गया। पंडित जी वैदिक धर्म प्रचार में इतने व्यस्त हो जाते थे कि उन्हें अपनी पत्नी व पुत्र का ध्यान नहीं रहता था। वह चाहते थे कि उनकी धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मीदेवी जी उपदेशिका बनकर उनके साथ धर्मप्रचार करें। इसलिये वह अपनी पत्नी व पुत्र को भी धर्म प्रचारार्थ साथ में ले जाने लगे। उनका पुत्र बहुत छोटा था। वह यात्रा के कष्टो को सहन नहीं कर सका और रुग्ण होकर डेढ़ वर्ष की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हो गया। पंडित जी ने धैर्य से इस पुत्र वियोग के दुःख को सहन किया और वैदिक धर्म का प्रचार निरन्तर करते रहे।


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