देवासुर संग्राम

   


देवासुर संग्राम


संसार एक समरस्थली है। यहाँ पर कभी राम-रावण का युद्ध होता है, कभी पांडव-कौरव का युद्ध होता है। ये सभी महायुद्ध थे। परन्तु इनसे भी बड़ा युद्ध हमारे अंदर निरंतर चल रहा है। इस युद्ध का कर्ता आत्मा है और उसके शत्रु वासनाएं हैं। जोकि निरंतर उसके श्रेष्ठ मार्ग से भटकाने के लिए दृढ़ है। मनुष्य की इन्द्रियों कि वृतियां बहिर्मुखी है। बहुत कम धीर लोग अंतर्मुखी हो इस युद्ध पर विचार करते है। मनुष्य की इन्द्रिया संसार की विभिन्न वस्तुओं के दर्शन, प्राप्ति,भोग आदि में लिप्त होकर अंतरात्मा की आवाज़ को भूल गई है। वे आत्मिक शांति को प्राप्त करने के उद्देश्य की बजाय सांसरिक वस्तुओं के भोग में शांति की खोज करने लगे है। प्राचीन ऋषि मुनियों का देवासुर संग्राम को लेकर गहरा चिंतन था। यही कारण है कि विभिन्न रूपों में उन्होंने इसकी विवेचना की है। वेदों में अलंकारिक रूप से देवताओं के राजा इंद्र और असुरों के राजा वृत्र का वर्णन है। जिसका अर्थ आंतरिक अच्छाई और बुराई के मध्य संघर्ष है। इंद्र ऐश्वर्यशाली दिव्यगुणों एवं शुभ कर्मों का अधिपति रूपी आत्मा है। जबकि वृत्र ज्ञान को आवृत करने वाला अहम भावों में वृद्धि करनेवाला प्रतिनिधि है। अंतर्मन में शुभ वासना एवं अशुभ वासना की नदिया बह रही है। आत्मा की नौका को किसी न किसी नदी में बहना ही है। आत्मा तटस्थ होकर केवल मात्र साक्षी बनकर नहीं रह सकता।
कठोपनिषद में आता है कि श्रेय और प्रेय दो प्रकार के मार्ग मनुष्य को प्राप्त हैं। बुद्धिमान दोनों की उचित प्रकार से परीक्षा लेकर दोनों को अलग-अलग करता है। बुद्धिमान प्रेय के अतिरिक्त श्रेय को मांगता है और बुद्धिहीन प्रेय मार्ग का वरण करते हुए सांसारिक सुखों कि कामना करता है। जो जीव सुख को कर्तव्य कर स्थान पर अधिक महत्व देता है। वह वासनाओं की नदी में जीवन रूपी नौका को उतार कर बहता चला जाता है। जो कर्तव्यपथ से कभी विमुख नहीं होता और शुभ वासनाओं कि नदी के प्रवाह में इतने वेग से बहता चला जाता है। धीरे धीरे अशुभ वासनाओं में बहने की सम्भावना की समाप्त हो जाती है। यही अवस्था है जब कल्याण वाहिनी चितनदि ऋतम्भरा, प्रज्ञा के आलोक से आत्मा को अजेय बना देती है। अब क्रांति शांति में, प्रवृति निवृति में परिणत हो जाती है। विवेक और विचार का श्रम स्वभावसिद्ध भक्त पुरुष सुलभ शम के स्वरुप को धारण किया करता है। यह अवस्था स्थितप्रज्ञ की हुआ करती है। इस अवस्था में पहुँचने से पहले हज़ारों रामायण और महाभारत के घोर संग्राम लड़ने पड़ते है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान, जय-पराजय से ऊपर उठकर जो लड़ता है। जय उसी की होती है। इस कार्य में परमात्मा कदम कदम पर सहायता करते है। तभी विजय होती है। रावण राक्षस रूपी अशुभ वासनाओं को मारकर सीता रूपी श्रेष्ठ गुणों की रक्षा करना मर्यादा पुरुषोत्तम राम रूपी गुणों का कार्य है। दशानन रूपी इन्द्रियों का विवेक वैराग्य और हनुमान रूपी ब्रह्मचर्य से दमन कर सती सीता रूपी परमात्मा को लक्ष्य बनाकर काम क्रोध आदि दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करना जीवन का उद्देश्य है। अज्ञान (धृतराष्ट्र) से उत्पन्न प्रबल अहंकार (दुर्योधन)
आसुरी संपत्ति का अधिनायक बन कर उसकी सहायता करता है। इस युद्ध में विजयी बनने के लिए युद्धिष्ठिर रूप व्यावसायिकता धर्मबुद्धि, अर्जुनरुप उज्जवल विवेक शक्ति, भीम रूपी आत्मबल, भगवत्शक्ति के प्रतिनिधि कृष्ण की सहायता लेकर ही सफल हुए है।


आईये ईश्वर की आराधना से इस आत्मा में चलने वाले युद्ध वृतियों पर देवों द्वारा विजय प्राप्त करवाये। यही देवासुर संग्राम है और इसी में अंतिम लक्ष्य प्राप्त करना जीवन उद्देश्य है।


डॉ विवेक आर्य


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