श्राद्ध

श्राद्ध जीवितों का या मृतकों का



  1. श्राद्ध मीमांसा 


श्राद्ध क्या है ? श्राद्ध का अर्थ है सत्य का धारण करना अथवा जिसको श्रद्धा से धारण किया जाए ..श्रद्धापूर्वक मन में प्रतिष्ठा रखकर,विद्वान,अतिथि,माता-पिता, आचार्य आदि की सेवा करने का नाम श्राद्ध है.


*श्राद्ध जीवित माता-पिता,आचार्य ,गुरु आदि पुरूषों का ही हो सकता है,मृतकों का नहीं* _मृतकों का श्राद्ध तो पौराणिकों की लीला है..वैदिक युग में तो मृतक श्राद्ध का नाम भी नहीं था.._


वेद तो बड़े स्पष्ट शब्दों में माता-पिता,गुरु और बड़ों की सेवा का आदेश देता है,यथा--


*#अनुव्रतः_पितुः_पुत्रो_मात्रा_भवतु_संमनाः_ ! --अथर्व:-३-३०-२
पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला और माता के साथ उत्तम मन से व्यवहार करने वाला हो..


मृतक के लिए बर्तन देने चाहिएँ और वे वहाँ पहुँच जाएँगे,मृतक का श्राद्ध होना चाहिए तथा इस प्रकार होना चाहिए और वहाँ पहुँच जाएगा ,ऐसा किसी भी वेदमंत्र में विधान नहीं है..


श्राद्ध जीवितों का ही हो सकता है,मृतकों का नहीं..पितर संज्ञा भी जीवितों की ही होती है मृतकों की नहीं ..वैदिक धर्म की इस सत्यता को सिद्ध करने लिए सबसे पहले पितर शब्द पर विचार किया जाता है..
*पितर शब्द "पा रक्षेण" धातु से बनता है,अतः पितर का अर्थ पालक,पोषक,रक्षक तथा पिता होता है..* जीवित माता-पिता ही रक्षण और पालन-पोषण कर सकते है..मरा हुआ दूसरों की रक्षा तो क्या करेगा उससे अपनी रक्षा भी नहीं हो सकती,अतः मृतकों को पितर मानना मिथ्या तथा भ्रममूलक है..


वेद,रामायण,
महाभारत,गीता,पुराण,ब्राह्मण ग्रन्थ तथा मनुस्मृति आदि शास्त्रों के अवलोकन से यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि पितर संज्ञा जीवितों कि है मृतकों कि नहीं..


*#उपहूताः_पितरः_सोम्यासो_बर्हिष्येषु_निधिषु_प्रियेषु !*
*#त_आ_गमन्तु_त_इह_श्रुवन्त्वधि_ब्रुवन्तु ते अवन्त्वस्मान !!* (यजुर्वेद:-१९-५७)
हमारे द्वारा बुलाये जाने पर सोमरस का पान करनेवाले पितर प्रीति कारक यज्ञो तथा हमारे कोशों में आएँ.वे पितर लोग हमारे वचनों को सुने,हमें उपदेश दें तथा हमारी रक्षा करें .


इस मन्त्र में महीधर तथा उव्वट ने इस बात को स्वीकार किया है कि पितर जीवित होते है,मृतक नहीं क्योंकि मृतक न आ सकते है,न सुन सकते है न उपदेश कर सकते है और न रक्षा कर सकते है..


*#आच्या_जानु_दक्षिणतो_निषद्येदं_नो_हविरभि_गृणन्तु विश्वे* !! (अथर्व वेद:-१८-१-५२)
हे पितरो ! आप घुटने टेक कर और दाहिनी ओर बैठ कर हमारे इस अन्न को ग्रहण करें ..


इस मन्त्र का अर्थ करते हुए सायण , महीधर,उव्वट और ग्रिफिथ साहब --सब घुटने झुककर वेदी के दक्षिण ओर बैठना बता रहे है..क्या मुर्दों के घुटने होते है? इस वर्णन से प्रकट हो जाता है कि जीवित प्राणियों की ही पितर संज्ञा है..


*#ज्येष्ठो_भ्राता_पिता_वापि_यश्च_विद्यां_प्रयच्छति !*
*त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धामे च पथि वर्तिनः* !! (वाल्मीकि रामायण :-१८-१३)


धर्म -पथ पर चलने वाला बड़ा भाई ,पिता और विद्या देने वाला --ये तीनों पितर जानने चाहिएँ


*#जनिता_चोपनेता_च_यस्तु_विद्यां_प्रयच्छति !*
*#अन्नदाता_भयस्त्राता_पञ्चैता_पितरः_स्मृताः !!* ( चाणक्य नीति :-५-२२)


विद्या देनेवाला ,अन्न देनेवाला,भय से रक्षा करने वाला ,जन्मदाता --ये मनुष्यों के पितर कहलाते है..


श्वेताश्वेतारोपनिषद के इस कथन के अनुसार--
*#नैव_स्त्री_न_पुंमानेश_न_चैवायं_नपुंसकः !*
*#यद्यच्चरीरमादत्ते_तेन_तेन_स_लक्ष्यते !*! (--५-१०)
यह आत्मा न स्त्री है,न पुरुष है न ही यह नपुंसक है, किन्तु जिस-जिस शारीर को ग्रहण करता है उस उस से लक्षित किया जाता है..मरने के बाद इसकी पितर संज्ञा कैसे हो सकती है ?


यदि दुर्जनतोषन्याय वश मृतक श्राद्ध स्वीकार कर लिया जाए तो इसमें अनेक दोष होंगे..सबसे पहला दोष #कृतहानि_का_होगा._ _कर्म कोई करे और फल किसी और को_ _मिले,उसको कृत हानि_ _कहते है..परिश्रम कोई करे और फल किसी और को मिले_.. *दान पुत्र करे और फल माता-पिता को मिले तो कृत हानि दोष आएगा*


*दूसरा दोष* #अकृताभ्यागम का होगा.. _कर्म किया नहीं और फल प्राप्त हो जाए,उसे अकृताभ्यागम कहते है..मनुष्य के न्याय में तो ऐसा हो सकता है कि कर्म कोई करे और फल किसी और को मिल जाए,परन्तु परमात्मा के न्याय में ऐसा नहीं हो सकता..


पौराणिक कहते है कि फल को अर्पण करने के कारण दूसरे को मिल जाता है, परन्तु यह बात ठीक नहीं..बेटा किसी व्यक्ति को मारकर उसका फल पिता को अर्पण कर दे तो क्या पिता को फांसी हो जायेगी? यदि ऐसा होने लग जाए तब तो लोग पाप का संकल्प भी पौराणिक पंडितों को ही कर दिया करेंगे... 


*इन दोषों के के कारण भी मृतक श्राद्ध सिद्ध नहीं होता.*..


अब विचारणीय बात है यह है कि उन्हें भोजन किस प्रकार मिलेगा..भोजन वहाँ पहुँचता है या पितर लोग यहाँ करने आते है..यदि कहो कि वहीँ पहुँचता है


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