महर्षि दयानंद सरस्वती की दृष्टि में मुक्ति और मुक्ति के साधन

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की दृष्टि में मुक्ति और मुक्ति के साधन 


Emancipation and the means of achieving it – as explained by Maharshi Dayananda Saraswati  
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मुक्ति कहते हैं - छूट जाने को अर्थात् जितने दु:ख हैं उनसे सब छूटकर एक सच्चिदानन्द स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होकर सदा आनन्द में रहना, फिर जन्म-मरण आदि दुःखसागर में नहीं गिरना। इसी का नाम मुक्ति है। वह किस प्रकार से होती है ? 


इसका पहला साधन सत्य का आचरण है और वह सत्य आत्मा और परमात्मा की साक्षी से निश्चय करना चाहिये अर्थात् जिसमें आत्मा और परमात्मा की साक्षी न हो, वह असत्य है। जैसे किसी ने चोरी की। जब वह पकड़ा गया उससे राजपुरुष ने पूछा कि - तूने चोरी की या नहीं ? तब तक वह कहता है कि - मैंने चोरी नहीं की। परन्तु उसका आत्मा भीतर से कह रहा है कि - मैंने चोरी की है। तथा जब कोई झूठ की इच्छा करता है तब अन्तर्यामी परमेश्वर उसको जता देता है कि - यह बुरी बात है। इसको तू मत कर और लज्जा, शंका और भय आदि उसके आत्मा में उत्पन्न कर देता है। और जब सत्य की इच्छा करता है तब उसके आत्मा में आनन्द कर देता है। और प्रेरणा करता है कि - यह काम तू कर। अपना आत्मा जैसे सत्य काम करने में निर्भय और प्रसन्न होता है वैसे झूठ में नहीं होता। जब परमात्मा की आज्ञा को तोड़कर बुरा काम कर लेता है तब उस की मुक्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती। ओर उसी को असुर, दुष्ट, देत्य और नीच कहते हैं । इसमें वेद का प्रमाण है कि -


असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना: ॥
(यजुर्वेद : अध्याय 40, मन्त्र 3)


आत्मा का हिंसन करने वाला अर्थात् जो परमेश्वर की आज्ञा को तोड़ता है और अपने आत्मा के ज्ञान के विरुद्ध बोलता, करता और मानता है उसी का नाम असुर, राक्षस, दुष्ट, पापी, नीच आदि होता है।


मुक्ति के मिलने के साधन ये हैं  - 


1.  सत्य आचरण। 


2. सत्य विद्या अर्थात् ईश्वरकृत वेदविद्या को यथावत् पढ़कर ज्ञान की उन्नति और सत्य का पालन यथावत् करना।


3. सत्यपुरुष ज्ञानियों का संग करना।


4. योगाभ्यास करके अपने मन, इन्द्रियों और आत्मा को असत्य से हटाकर सत्य में स्थिर करना और ज्ञान को बढ़ाना। 


5. परमेश्वर की स्तुति करना अर्थात् उसके गुणों की कथा सुनना और विचारना। 


6. प्रार्थना - कि जो इस प्रकार होती है कि - हे जगदीश्वर ! हे कृपानिधे ! हे अस्मत्पित: ! असत्य से हम लोगों को छुड़ा के सत्य में स्थिर कर और हे भगवन् ! हम को अन्धकार अर्थात् अज्ञान और अधर्म आदि दुष्ट कामों से अलग करके विद्या और धर्म आदि श्रेष्ठ कामों में सदा के लिये स्थापन कर। और हे ब्रह्म ! हम को जन्म-मरणरूप संसार के दुःखों से छुड़ाकर अपने कृपाकटाक्ष से अमृत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर। जब सत्य मन से अपने आत्मा, प्राण और सब सामर्थ्य से परमेश्वर को जीव भजता है तब वह करुणामय परमेश्वर उसको अपने आनन्द में स्थिर कर देता है। जेसे जब कोई छोटा बालक घर के ऊपर से अपने माता-पिता के पास नीचे आना चाहता है वा नीचे से ऊपर उनके पास जाना चाहता है तब हजारों आवश्यकता के कामों को भी माता पिता छोड़कर और दौड़कर अपने लड़के को उठाकर गोद में लेते हैं कि हमारा लड़का कहीं गिर पड़ेगा तो उसको चोट लगने से उसको दुःख होगा। और जैसे माता-पिता अपने बच्चों को सदा सुख में रखने की इच्छा और पुरुषार्थ सदा करते रहते हैं वैसे ही परम कृपानिधि परमेश्वर की ओर जब कोई सच्चे आत्मा के भाव से चलता है, तब वह अनन्तशक्तिरूप हाथों से उस जीव को उठाकर अपनी गोद में सदा के लिए रखता है। फिर उसको किसी प्रकार का दुःख नहीं होने देता है और वह सदा आनन्द में रहता है।


पक्षपात को छोड़कर सत्य ग्रहण और असत्य का परित्याग कर के अर्थ को सिद्ध करना चाहिए। देखो ! सब अन्याय और अधर्म पक्षपात से होता है।…पक्षपात से ही नित्य अधर्म होता है। अधर्म से काम को सिद्ध करना इसी को अनर्थ कहते हैं। ओर धर्म और अर्थ से कामना अर्थात् अपने सुख की सिद्धि करना इस को काम कहते हैं। और अधर्म अर्थात् अनर्थ से काम की सिद्धि करना इसको कुकाम कहते हैं। इसलिए इन तीनों अर्थात् धर्म, अर्थ और काम से मोक्ष को सिद्ध करना उचित है। इसमें यह बात है कि ईश्वर की आज्ञा का पालन करना इसको धर्म, और उसकी आज्ञा का तोड़ना इसको अधर्म कहते हैं। सो धर्म आदि ही मुक्ति के साधन हैं और कोई नहीं। और मुक्ति सत्य पुरुषार्थ से सिद्ध होती है; अन्यथा नहीं।


[स्रोत : मेला चांदापुर अथवा सत्य धर्म विचार, संकलन और प्रस्तुति : भावेश मेरजा]


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